आज के हिंदुस्तान में भगत सिंह को मिटाया जा रहा है, भुलाया जा रहा है. क्यों? क्योंकि भगत सिंह सिर्फ हमारी भावनाओं का हिस्सा बन कर रह गए हैं. नेता भोंपू के माध्यम से इंकलाब बोलते हैं और आवाम पीछे–पीछे जिंदाबाद बोल देती हैं. ना नेता को मालूम है इंकलाब का असली मतलब और ना ही जानता को खबर है इंकलाब के जिंदाबाद होने की.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भगत सिंह सिर्फ भावनाओं का हिस्सा बनकर रह गए, सरकारी दफ्तरों में लटकी हुई तस्वीरों तक सिमट कर रह गए. लोगों की सोच का हिस्सा बन ही नहीं पाए.
भगत सिंह को उम्मीद थी कि जब देश में ‘अपनी’ हुकूमत होगी तो उनका लिखा उसे दिशा देगा, उनके सपनों का हिंदुस्तान बनेगा. भगत सिंह ने राष्ट्र का एक स्वरूप तैयार किया था.
आज के लेख में हम भगत सिंह के सपनों के भारत को समझने, जानने का प्रयास करेंगे.
शुरुआत इंकलाब जिंदाबाद के नारे से करते हैं वह नारा जिसके माध्यम से हमारा पहला परिचय भगत सिंह से हुआ था. और आज भी नेता उसी नारे के माध्यम से खुद को भगत सिंह का वारिस साबित करते हैं. इंकलाब का अर्थ है क्रांति. इंकलाब ज़िंदाबाद क्रांति की जय.
सन् 1931 में भगत सिंह जब सांडर्स हत्याकांड में जेल की दमघोंटू हवा में ‘जी’ रहे थे तब अपने नवयुवक राजनीति क्रांतिकारियों के नाम एक पत्र लिखते हैं. जिसमें वो क्रांति के मतलब को स्पष्ट करते हैं.
“जनता के लिए जनता की राजनीतिक शक्ति हासिल करना ही वास्तविक क्रांति है. क्रांति के माध्यम से केवल मालिक नहीं बदलना है, पूरे हिंदुस्तान में श्रमिकों का राज स्थापित करना है. इसके लिए वे पूरे पूंजीवादी आर्थिक तंत्र को (जिसकी जड़े शोषण पर आधारित है) बदलने की बात करते हैं.
उनका कहना था कि अगर गोरे अंग्रेज हटा भी दिए तो वहां काले अंग्रेज बैठ जाएंगे यानी जब तक शोषणमुल्क तंत्र को नहीं हटाते हैं तब तक आजादी नसीब नहीं होगी.
इसी लेख में भगत सिंह हिदायत भी देते हैं कि श्रमिक क्रांति के अतिरिक्त न किसी और क्रांति की इच्छा रखनी चाहिए और ना ही वह सफल हो सकती है
उनकी श्रमिक क्रांति 98 प्रतिशत भारतीयों से होने वाली थी. श्रमिक क्रांति में मजदूर के साथ किसान भी शामिल थे. गौर कीजिए यहां भगत सिंह मार्क्स और वामपंथियों से आगे जाते हैं. सर्वहारा वर्ग में मजदूरों के साथ किसानों को भी जोड़ देते हैं. ऐसा भारतीय समाजवादी दल नहीं कर पाए थे. (उनकी असफलता के पीछे एक प्रमुख कारण)
अब आप थोड़ा पीछे मुड़कर देखिए कोरोना की लपटों में लाखों मजदूर हजारों मिलों के लिए सड़कों पर पैदल चल रहे थे दिल्ली की कंपकपाती सर्दी में हजारों किसान दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे थे.
भगत सिंह के सपनों का राष्ट्र यही था?
सामाजिक अन्याय के खिलाफ क्रांति
21वीं सदी के इस दौर में भी नेता अछूत समस्या पर बोलने से हिचकिचाते चाहते हैं. वह अपने राजपूत होने पर गर्व करेंगे पर अछूत मुद्दे पर बात नहीं करेंगे लेकिन आज से लगभग 94 साल पहले जून, 1928 में भगत सिंह इस मुद्दे पर लेख लिखते हैं जो शायद हर भारतीय को पढ़ना चाहिए!
“समस्या यह है कि 30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में 6 करोड लोग अछूत कहलाते हैं. उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. उनके मंदिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे. कुए से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआं अपवित्र हो जाएगा.... आगे लिखते हैं ...कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है हमारी रसोई में नि:संग फिरता है लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है”
भगत सिंह इस लेख में अछूतों को संगठित होने का निवेदन कर रहे हैं. साथ ही उन्हें असली सर्वहारा घोषित करते हैं. भारतीय मार्क्सवादी लोग इस विभाजन को नहीं समझ पाए थे जो कि भगत सिंह ने समझा था.
आज भी यही हाल है फर्क बस इतना है कि पहले जिन्हें हरिजन कहा गया था उन्हें आज बहुजन कहा जाता है जन नहीं.
राष्ट्रवाद और भगत सिंह
अधिकांश दक्षिणपंथी भगत सिंह को केवल इसलिए याद करते हैं क्योंकि वह एक राष्ट्रवादी थे लेकिन उनका राष्ट्रवाद दक्षिणपंथियों के राष्ट्रवाद से अलग था. कैसे?
देश में रहने वाले तमाम लोगों के बीच जुड़ाव का एक भाव आयेे, तो वो राष्ट्रवाद है. भगत सिंह के लिए जुड़ाव का भाव आर्थिक कारणों से आता था. गरीब लोगों से मिलकर उनका भारत बनने वाला था. जिसमें राष्ट्र की जनसंख्या का 98% भाग शामिल होना था. जिसकी तैयारी आजादी की रणभेरी में ही स्पष्ट हो गई थी. उनका मानना था कि लड़ाई केवल गोरे अंग्रेजों को खदेड़ने तक सीमित नहीं है वह जारी रहेगी हर युग में संकीर्णताओंं और सामाजिक दीवारों के खिलाफ. जिन्हें तोड़कर हर पल क्रांति के लो को जिंदा रखना है. इसीलिए उनका नारा था इंकलाब जिंदाबाद. आज के दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों के लिए इंकलाब जिंदाबाद की जगह वंदे मातरम के नारे ने ले ली है. उनका राष्ट्रवाद कब सांप्रदायिकता का रूप धारण कर लेता है, पता ही नहीं चलता.
सांप्रदायिकता,संकीर्णता और भगत सिंह
नौजवान भारत सभा में शामिल होने की एक शर्त यह थी कि वह किसी सांप्रदायिक संगठन से जुड़ा हुआ ना हो.
सांप्रदायिकता आज भी समाज में जहर फैला रही है. जिसके खिलाफ बोलने की कोई हिमाकत भी नहीं करता. जून, 1928 में किरती अखबार में भगत सिंह सांप्रदायिक दंगे और इलाज शीर्षक से एक लेख लिखते हैं. लेख का सार है कि नेता स्वार्थ के लिए धर्म को राजनीति में लाते हैं जनता जो कि गरीब है नेताओं के बहकावे में आ जाती हैं और उन दंगों का हरावल बन जाती है. सभी दंगों का एक इलाज है आर्थिक विकास .
आपको पता होगा भगत सिंह एक पत्रकार भी थे. गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार‘प्रताप’ के लिए वह बलवंत नाम से लिखते भी थे. सांप्रदायिक दंगों के पीछे अखबारों को भी जिम्मेदार ठहराते हैं. आज के दौर में भी यह सच है.... आप टीवी डिबेट देखते होंगे यहां उन्हें उद्धरित करता हूं
“अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल मिला बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है.”
सांप्रदायिकता, उपनिवेशवाद से भी ज्यादा खतरनाक है ~भगत सिंह
नौजवान भारत सभा के घोषणा पत्र में वो ‘बांटो और राज करो’ की नीति को समझाते हैं– हमारे बंटने का सबसे ज्यादा फायदा शत्रु उठाएंगे लेकिन हम कहां संभलने वाले. आज बड़ा नेता बनने के लिए पहले साम्प्रदायिक होना पड़ता है.
संकीर्णता इतिहास में भी झांकती है. वह कभी भगत सिंह के माथे की पगड़ी के रूप में सामने आती है. कभी लाल वामपंथी बन कर, तो कभी भगवा दक्षिणपंथी बनकर तो कभी पीली अकाली पहचान बन कर.
हम उन्हें सिर्फ पगड़ी के रंग तक सीमित क्यों करें? मैं नास्तिक क्यों हूं लिखने वाले लेखक को भी धार्मिक चोला पहना दिया जाता है
वारिस होने का दावा करने वाले मैं नास्तिक क्यों हूं कोई स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल करवाएंगे?
भगत सिंह भी कार्ल मार्क्स की तरह धर्म को अफीम मानते थे. धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहते थे फिर भी धर्म के एक भाग को स्वीकार्यता दी थी.
भगत सिंह और सार्वजनिक जीवन में ‘धर्म’
आज के दौर में नेताओं की चुनावी यात्राओं का शुभारंभ धार्मिक स्थलों से ही होता है. मतदाता भी उसे खूब पसंद करते हैं. धर्म, सार्वजनिक विमर्श का प्रमुख भाग बना हुआ है.
स्वतंत्रता संग्राम के समय भी यह बहस जारी थी कि धर्म का सार्वजनिक महत्त्व में क्या योगदान हो.
भगत सिंह का मई,1928 में ‘किरती’ अखबार में एक लेख छपा था. धर्म और स्वतंत्रता संग्राम नाम से. (हिंदी और अंग्रेजी)
उस वक्त कुछ लोगों द्वारा तर्क दिया जाता था कि धर्म तो व्यक्तिगत मसला है, उसे व्यक्तिगत ही रहने दें. लेख की शुरुआत इसी तर्क को खारिज करके करते हैं. पूछते हैं कि क्या जो व्यक्ति के दिल में है वह उसके अनुरूप सार्वजनिक जीवन में व्यवहार नहीं करेगा? करता है.
फिर धर्म व्यक्तिगत मसला रहा ही नहीं.
अब बात आती है कि भगत सिंह सार्वजनिक जीवन में धर्म के कौनसे रूप को स्वीकार करते थे और किस रूप को खारिज करते थे और क्यों?
भगत सिंह ने टॉलस्टॉय की किताब का हवाला देकर धर्म के तीन भाग बतलाएं.
1. Essentials of Religion यानी धर्म की जरूरी बातें अर्थात सच बोलना, चोरी नहीं करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना इत्यादि.
2. Philosophy of Religion जन्म और मृत्यु, पुनर्जन्म, संचार रचना आदि का दार्शनिक भाग.
3.Rituals of Religion यानी रस्मों रिवाज.
भगत सिंह के लिए तर्कशीलता जरूरी चीज थी क्योंकि जहां सोचने की शक्ति खत्म हो जाती है वहीं से गुलामी शुरू हो जाती है.
धर्म के पहले भाग को छोड़ दें तो दूसरा और तीसरा भाग सोचने की शक्ति को खत्म कर देता है, उसे तर्क की बुनायद पर कसाव अच्छा नहीं लगता है. इसीलिए सब पहले की कही गई बातों को मानने लग जाते हैं अपना दिमाग उसमें नहीं खपाते हैं. और यहीं से जगड़ा–फसाद शुरू हो जाता है. एक धर्म वालों के लिए यात्रा में गाना बजाना जरूरी होता है तो दूसरे धर्म वाले गाने की आवाज को सुनना पसंद नहीं करते हैं.
भगत सिंह धर्म के दूसरे और तीसरे रूप को सार्वजनिक जीवन में खारिज करते हैं. धर्म के दूसरे और तीसरे रूप को खारिज करने का एक कारण आजादी को पाना भी था. आजादी, केवल अंग्रेजों के चुंगल से छूटना ही नहीं था. पूर्ण आजादी के लिए अंधविश्वास जैसी दिमागी गुलामी से मुक्ति पाना भी जरूरी है.
भगत सिंह के नाम पर वोट मांगने वाले नेता धर्म के मामले में कैसा रुख अख्तियार करते हैं? आप सोचिए.
भावनाएं जो बात–बात पर आहत हो जाती हैं!
कुछ लोगों में भावनाएं सिर्फ आहत होने के लिए ही आती है. और यह हर समय आहत होती रहती है. भगत सिंह लिखते हैं हम क्या कर रहे हैं? पीपल की डाल टूटते ही हिंदुओं की धार्मिक भावनाएं चोटिल उठती हैं. बुतों को तोड़नेवाले मुसलमानों के ताजिये नामक कागज की बुत का कोना फटते ही अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है और फिर वह नापाक हिंदुओं के खून से कम किसी वस्तु से संतुष्ट नहीं होता. मनुष्य को पशुओं से अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए लेकिन यहां भारत में वे लोग पवित्र पशु के नाम पर एक दूसरे का सिर फोड़ते हैं.
लगभग 100 वर्षों बाद आज भी यही हाल है. बात बात पर मार काट के लिए उतर जाते हैं.
संविधान और भगत सिंह
पश्चिम से इतर भारतीय संविधान निर्माताओं ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता (इंडिविजुअल फ्रीडम) के साथ-साथ सामाजिक न्याय को भी जगह दी, लेकिन यह जगह भगत सिंह को नहीं भाती. भगत सिंह सामाजिक न्याय से प्रेरित नीति निदेशक तत्वों को राज्य की मर्जी पर नहीं छोड़ते. उन्हें राज्यों का दायित्व बनाते. अगर राज्यों का दायित्व होता तो शायद देश के गरीब लोगों की दशा में सुधार आया होताा. यानी नागरिक केे जीवन में राज्य की भूमिका भी अधिक होती जोकि पूंजीवादी अर्थतंत्र के बिलकुल उल्ट है.
समाजवाद और भगत सिंह
फांसी के लिए जब बुलावा आया तब भगत सिंह ने कहा आप 5 मिनट रुकिए, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है. यानी भगत सिंह लेनिन को पढ़ रहे थे. लेनिन समाजवादी था (प्रोफ़ेसर विपिन चंद्र ने भगत सिंह को भारत का लेनिन कहा था) भगत सिंह भी सोवियत संघ की तरह आर्थिक नियोजन को लागू करना चाहते थे. जिसका उन्होंने कई मर्तबा जिक्र भी किया था. जिन दक्षिणपंथियों को इन पर प्यार आ रहा है उन्हें मालूम होना चाहिए कि भगत सिंह का राष्ट्रवाद, समाजवाद पर आधारित था.
कुछ इस तरह का हिंदुस्तान भगत सिंह बुनना चाहते थे.
दीवारों पर तस्वीरें टांगने से, चौराहों पर मूर्ति लगवाने से या एयरपोर्ट का नाम भगत सिंह रखने से आप भगत सिंह के वारिस नहीं बन सकते हैं.
वारिस बनिए, भक्त नहीं. वारिस यानी मौजूदा समय में विद्यमान संकीर्णताओं को तोड़ने की कोशिश कीजिए वह चाहे राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक क्यों ना हो.
केवल वोट बैंक के लिए, गांधी का विरोध करने के लिए या लोगों की भावनाओं का फायदा उठाने के लिए भगत सिंह को याद मत कीजिए.
उनके सपनों के हिंदुस्तान को बनाने के लिए की गई सच्ची कोशिश उनके प्रति बेहतर श्रद्धांजलि होगी.
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