पुस्तक समीक्षा: “जाति और लिंग— दलित, सवर्ण और हिंदी प्रिंट संस्कृति”

गोरे लोगों के दबदबे वाले मुल्क में सैकड़ों वर्षों की जद्दोजहद के बाद एक ‘ब्लैक पुरुष’ राष्ट्रपति बना; तो भारत में भी उसकी खूब सराहना की गई। लेकिन, इसी भारतीय समाज के बीच मायावती का जिक्र आते ही एक खास तरह की चुप्पी सा जाती है। ऐसा क्यों ? जहाँ ओबामा केवल एक तरह के ज़ुल्म का शिकार थे वहीं मायावती दोहरे ज़ुल्म की भुक्तभोगी; एक तो दलित और ऊपर से महिला।

एक ऐसा समाज जो कि सहत्राब्दियों से पितृसत्ता और जाति–व्यवस्था की दोहरी दमनकारी जंजीरों से जकड़ा हुआ था, वहाँ एक दलित महिला का, देश के सबसे बड़े सूबे का मुख्यमंत्री बन जाना क्रांतिकारी घटना तो है ही।

यह तो समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएँगा कि जब भी रंगभेद के मसले पर विमर्श शुरू होता है तब मुबाहिसा का दायरा सिमट कर सिर्फ अश्वेत ‘पुरुषों’ तक सीमित हो जाता है।

ऐसे ही, भारत में महिलाओं के उत्थान का मतलब— सवर्ण महिलाओं का उत्थान बनकर रह जाता है। इसी बात से प्रेरित हो कर लेखिका चारू गुप्ता ‘जाति के लिंग’ और ‘लिंग की जाति’ की तरफ़ हमारा ध्यान खींचती हैं। आज का लेख चारु गुप्ता की किताब ‘जाति और लिंग दलित, सवर्ण और हिंदी प्रिंट संस्कृति’ पर केंद्रित है।

साहित्य जगत में सबाल्टर्न हस्तक्षेप

एक प्रसिद्ध उद्धरण है; “इतिहास विजेताओं का लिखा जाता है।” विजेताओं पर केंद्रित या यूँ कहें सत्ताधारी वर्ग के आस–पास डोलते विमर्श का प्रभाव सिर्फ इतिहास तक ही सीमित नहीं रहा; उसका पुट साहित्य पर भी देखा जा सकता है। जब साहित्य में पुरुषों के ऊपर लिखा गया तब आदर्श पुरुष के रूप में तथाकथित सवर्ण जाति के पुरुष को खड़ा कर दिया। यही अनुकरण महिलाओं के मामले में हुआ।

लेकिन, अकेले सवर्ण से कहानी पूरी कहाँ होती है ? उसके आस–पास, गाहे-ब-गाहे दलित का जिक्र भी आ ही जाता है। सबाल्टर्न नज़रिये की लेखिका, हाशिये पर धकेल दिए गए दलितों को केंद्र में लाती हैं। दलितों में भी लेखिका दलित महिलाओं की बात करती हैं।

दलित महिलाओं का चित्रण

गौरतलब है कि ब्रितानी राज के अधीन भारतीय समाज का सामना नीत नये विचारों से हो रहा था। नवजागरण, उदारवाद, लोकतंत्र, समानता, बंधुत्व जैसे विचार मौजूदा ढाँचे में हलचल पैदा कर रहे थे। बने बनाए साँचे टूटने लगे थे।

शोषक वर्ग, उस पुरानी परंपरा (व्यवस्था) को बचाएँ रखने की आख़िरी कोशिश कर रहा था। इसी दरमियान, दलितों के बारे में बनाई गई उनकी पूर्वधारणा भी हिलोरे खा रही थी। पूर्वधारणा में आ रहे बदलाव का असर साहित्य के क्षेत्र पर भी पड़ा।

साहित्य जगत में दलित महिलाओं के चित्रण में आएँ बदलाव को चारु जी ने अपनी किताब में दर्ज किया है। आलोचनात्मक शैली में लिखी गई यह किताब— दलित इतिहास में स्त्री और स्त्री इतिहास में दलित को अंकित करने का भरपूर प्रयास करती है। इस पुस्तक के लिए औपनिवेशिक शासकों, सवर्ण लेखनों, सुधारवादी पत्रिकाओं, मिशनरी पर्चों, कार्टूनों दलित साहित्यों और दलितों के अपने व्यक्तिगत–सार्वजनिक अनुभवों को आधार बनाया है।

लेखिका, सवर्णों द्वारा लिखे गए उपदेशात्मक, सुधारवादी और राष्ट्रवादी साहित्य में से दलित स्त्रियों के दो तरह के चित्रण को रेखांकित करती हैं। एक चित्रण में दलित महिला की पीड़िता, अधीनस्थ और अत्याचार बर्दाश्त करने वाली मौन छवि है जो कि सहानुभूति की पात्र है और दूसरे प्रकार में दलित महिला को कुलटा (कई पुरुषों के साथ संबंध रखने वाली स्त्री) और कुटनी (झगड़ा करवाने वाली स्त्री) के रूप में दर्शाया है।

कुलटा और कुटनी के रूप में—

दलित महिला की एक ऐसी छवि बुनी गई जो समाज के लिए घातक है। यौनिकता से भरपूर महिला के रूप में दर्शाया गया। उसे बाजारू महिला की संज्ञा दी गई; जो किसी भी मरद के साथ संबंध बना देती है। एक ही साथ अनाकर्षक भी है, और लुभावना भी। वितृष्णापूर्ण भी है और आकर्षक भी। अस्पृश्य भी है और उपलब्ध भी। कुरूप भी है और सुंदर भी।

इस द्वंद्वात्मक चित्रण के पीछे सवर्णों का अपना मकसद छुपा हुआ था। दलित महिलाओं के शरीर पर होने वाली रोजाना की जातीय हिंसा को उनके कथित ओछे चरित्र का नाम देकर छुपा देने के लिए किया जाता था।

लेखिका एक पत्रिका के हवाले से लिखती हैं— “यह निम्न जाति की स्त्रियाँ, जो अपने घरों के बाहर काम करती हैं, अक्सर दूषित आचरण की होती हैं, अपने बच्चों का भली–भाँति लालन-पालन नहीं कर सकती हैं, अपने पतियों को पूरी तरह प्रसन्न और सुखी नहीं रख सकती हैं और उनके सारे कोमल गुण नष्ट हो जाते हैं, उनके ‘नारीपन’ और स्त्रीत्व का नाश हो जाता है।”

इस तरह के चित्रण में खास तौर से चमार दाइयों को निशाने पर लिया गया। उन्हें नैतिक और लैंगिक रूप से प्रदूषण बताया। गंदी, भयावह और खतरनाक डायन के रूप में चित्रित किया। तथाकथित हिंदू सवर्ण महिलाओं को इन दलित महिलाओं से दूर रहने का उपदेश दिया गया।

लेखिका ने इस बात को भी रेखांकित किया कि चमार दाइयों के साथ हो रहे भेदभाव पूर्ण सलूक का दलित संगठनों और दाइयों ने प्रतिरोध किया।

यह बात गौर करने वाली है कि महिलाओं के संघर्ष पर डॉ. राधा कुमार द्वारा लिखी गई किताब — ‘The History of Doing’ में इस तरह का प्रतिरोध स्थान हासिल नहीं कर पाया। ऐसे में यह किताब दुर्लभ है; इसकी महत्ता बढ़ जाती है।

आज़ादी का आंदोलन और दलित महिलाओं की ‘पावन’ पीड़िता वाली छवि

भारत में ‘राजनीतिक और सामाजिक’ आज़ादी हासिल करने का संघर्ष साथ–साथ शुरू हुआ। राजनीतिक संघर्ष के लिए ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ का गठन किया गया था जबकि सामाजिक सुधार के लिए ‘इंडियन (नेशनल) सोशल कॉन्फ्रेंस’ का गठन किया गया। यह अलग बात है कि कांग्रेस के सवर्ण नेताओं के दबाव में ‘सोशल कॉन्फ्रेंस’ इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गई। बहरहाल, इस खालीपन की भरपाई कई दलित संगठनों की ओर से की गई। जिसमें अछूतानंद और आंबेडकर जैसे नेताओं का योगदान अविस्मरणीय है। ऐसे ही कई दलित नेताओं और संगठनों के संघर्ष से तथाकथित सवर्ण जातियों पर दबाव बढ़ा; नतीजन सवर्णों को दलित महिलाओं के प्रति अपनाएँ गए नज़रिये में बदलाव लाना पड़ा।

सहानुभूति वाली छवि

‘कुलटा और कुटनी’ की छवि को छोड़ दलित महिला की एक दुर्भाग्यपूर्ण, गरीब, कमजोर, मूक और अबला रूप वाली छवि गढ़ी। प्राचीन मिथकों से शूर्पनखा और शबरी जैसे किरादरों को उद्धरित कर यह जताने की कोशिश की गई कि दलित हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा है।

“1924 में, दलितों के एक विवाह दल ने बिजनौर के पास एक गाँव में डोला–पालकी के साथ जाने का फैसला किया। उन पर हमला किया गया और पालकी में आग लगा दी गई। 1940–41 में ऐसी कई घटना रिपोर्ट हुई, जिसमें सवर्णों ने दलितों के विवाद दलों पर हमला किया, उनकी पिटाई की और पालकियों को तहस-नहस कर दिया।”

यह संवेदना और सहानुभूति का दिखावा सिर्फ स्वांग–भर था। इसके पीछे का असली मकसद था— जातीय अनुक्रम को बरकरार रखना। उसकी एक बानगी देखिए; जात-पॉंत तोड़क मंडल ने सन् 1935 में आंबेडकर को अपने सालाना जलसे में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया। आंबेडकर ने उसे सहर्ष स्वीकार किया। आर्य समाजियों ने कार्यक्रम से पहले भाषण की प्रतिलिप मंगवाई। आंबेडकर ने भेज दी। मंडल ने उस भाषण में सुधार करने की बात कही; जिसे आंबेडकर ने अस्वीकार कर दिया। मंडल ने आंबेडकर का भाषण रद्द कर दिया।

दलित स्त्रियों का वीरांगना रूप

लेखिका, 1857 की क्रांति के वैकल्पिक इतिहास के सहारे सवर्ण और पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाई गई ‘कुलटा’ और शोषित छवि से इतर दलित महिलाओं वीरांगना छवि को पाठकों के सामने उकेरती हैं। गौरतलब है कि यह छवि आज भी दलित महिलाओं को प्रेरित करती है। जब मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं तब राजत्व को वैधता दिलाने की कोशिश इन्हीं वीरांगनाओं के चित्रण से की गई थी।

दलित महिलाओं के इस वीरत्त्व वाले चित्रण ने सवर्णों और ब्रिटिश बहादुरों के द्वारा रचे गए साहित्य पर ही सवालिया निशान खड़े कर दिये।

दलित पुरुषार्थ का चित्रण

जैसे वर्ग विश्लेषण के लिए शासक वर्ग का अध्ययन ज़रूरी है, वैसे ही लैंगिक विश्लेषण के लिए पुरुष का अध्ययन। सवर्णों और अँगरेजों द्वारा दलित पुरुषों का भी एक खास तरह का चित्रण किया। दलित पुरुषों को निम्न, कमजोर, मूर्ख और मंदबुद्धि करार दिया। दलित पुरुष इस छवि को तोड़ने का भरसक प्रयास करते हैं। लेखिका ने उसे भी दर्ज किया है।

इसके साथ ही, लेखिका ने धर्मांतरण के कारण पैदा हुए मसलों को भी सिलसिलेवार ढंग से दर्ज किया है। पत्रिकाओं में छपे कार्टूनों के जरिए बताया है कि कैसे दूसरे धर्म दलितों को अपने धर्म की ओर आकर्षित कर रहे थे। दलित महिलाओं को नंगी, गंदी और बेतरतीब महिला के रूप में दर्शाया, तो वहीं ईसाई महिला वस्त्रयुक्त, साफ़–सुथरी साड़ी पहने और मुस्कराते हुए दिखाया।

धर्मांतरण के मामले में दलितों के सामूहिक धर्मांतरण को एक अलग नज़र से देखा गया और स्त्री के व्यक्तिगत धर्मांतरण को एक अलग नज़र से देखा गया।

कई बार रचनाकार अपने मत के पक्ष में माहौल बनाने के लिए दूसरे पक्ष पर चढ़ाई करने लग जाता है; जिसके कारण बौद्धिक निष्पक्षता संदेह के घेरे में आ जाती है। लेखिका चारु गुप्ता बौद्धिक निष्पक्षता की शानदार मिसाल पेश करती हैं। हर बात का संदर्भ पाठकों के सामने रखती हैं। जिससे लेखनी की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। हिन्दी भाषा में इस तरह का काम दुर्लभ है; काबिल–ए–तारीफ़ है।

हाँ, किताब को पढ़ते समय एक बात की निरंतर कमी महसूस हुई कि दलित महिलाओं के चित्रण में राष्ट्रीय आंदोलन को, उस आंदोलन के शीर्ष नेताओं की राय को दर्ज नहीं किया। जबकि वो एक ज़रूरी पहलू था। चूँकि कांग्रेस के अधिकांश नेता सवर्ण तबके से ताल्लुकात रखते थे। जाहिर है उसका असर साहित्य के ऊपर भी पड़ा होगा।

कुलमिलाकर यह किताब लैंगिक दलित इतिहास को एक नए नज़रिए से देखने की पेशकश करती है। जाति की संवेदना को सिर्फ पुरुषों तक सीमित करने की परंपरा को खारिज करती है। एक मायने में यह किताब ‘कल्चरल स्टडी’ को विस्तार देती है। दलितों के द्वारा लिखे गए इतिहास की अपनी ‘लिपि और भाषा’ को प्रकाश में लाती है। उम्मीद है कि यह शोधपरक किताब साहित्य और आलोचना के क्षेत्र में मिल का पत्थर साबित होगी।

यह टिप्पण फैमिनिजम इन इंडिया में छपी थी। यहाँ क्लिक करें!

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