प्रेमचंद के साहित्य में कौमी एकता की गूँज

हिंदुस्तान में ‘सांप्रदायिकता’ और ‘राष्ट्रवाद’ का विकास साथ–साथ हुआ। दोनों धाराएँ अपने शिखर पर एकसाथ पहुँची। नतीजा यह हुआ कि आज़ादी के साथ–साथ विभाजन को भी झेलना पड़ा।

जब सांप्रदायिकता की आँधी चलती है तब मानवीयता का अकाल पड़ जाता है। फ़िरका-परस्त लोगों का बोल–बाला छा जाता है। ऐसे में भला कोई साहित्यकार तटस्थ कैसे रह सकता है ? वो समाज को आइना दिखाता है, सही–गलत का। क्योंकि साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िलें सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। कलम के सिपाही ने भी वही किया। मजहबी संकीर्णताओं से मुठभेड़। आज भी उनके किरदार सड़कों पर लगे साइन-बोर्ड की तरह मार्गदर्शन करते हैं।

चूँकि सांप्रदायिकता आज भी समाज में पसरी हुई है, ऐसे में प्रेमचंद का साहित्य अधिक प्रासंगिक हो जाता है।

हिंदू त्यौहार – मुस्लिम त्यौहार

अगर गांधी होते तो कहते त्यौहारों का भी कोई मज़हब होता है ? शायद रामकृष्ण परमहंस भी यही बात कहते! बात भी सही है। प्यार–मोहब्बत के मौके किसी मज़हब के खूँटों से बंधे हुए नहीं होते हैं। लेकिन, दुर्भाग्य यह है कि आज त्यौहारों को भी मज़हब की झूठी दीवारों से बाँट दिया है। कुछ त्यौहार हिंदुओं के, कुछ त्यौहार मुसलमानों के। रामनवमी पर निकलने वाले जुलूसों को याद करिए। कुछ लोगों के लिए यह अवसर हिंसा फैलाने का एक जरिया मात्र बन जाते हैं।

प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ कहानी आपने बचपन में पढ़ी होगी। उसमें जिस तरह से ईदगाह का वर्णन प्रेमचंद करते हैं, वैसा वर्णन हिंदी साहित्य में दुर्लभ है। कहानी की शुरुआत कुछ इस तरह से होती है– “रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है।वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं।किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर से सुई-तागा लाने को दौड़ा जा रहा है.किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी।***सहसा ईदगाह नज़र आयी। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हैं। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए।कितना सुंदर संचालन है, कितनी सुंदर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सब-के-सब एक साथ खड़े हो जाते हैं। एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं। नमाज खत्म हो गई है, लोग आपस में गले मिल रहे हैं...”

कहानी को पढ़कर ऐसा लगता है कि लेखक के अंतर्मन में छुपी हुई खुशी उछल–उछल कर बाहर आ रही है। कहानीकार मजहब की दीवारों को फाँद कर दिली मुबारकबाद दे रहा है। इस्लाम की भूरि–भूरि प्रशंसा कर, अपने आदर को जता रहा है।

क्या प्रेमचंद को इस बात का भान नहीं था कि मुसलमानों में भी ऊँच–नीच है ? प्रेमचंद इस्लाम के सुंदर पक्ष को अपनी कहानी में उकेर रहे थे। आज जब कुछ लोग ईदगाहों के होने भर से भौहें सिकुड़ने लग जाते हैं, तब यह वर्णन बहुत मार्मिक और मर्मस्पर्शी मालूम होता है।

रामनवमी पर होने वाली हिंसा से आप अनजान नहीं होंगे। कई जुलूस तो केवल शक्ति प्रदर्शन के लिए निकाले जाते हैं। कई बार ये जुलूस हिंसक रूप धारण कर लेते हैं। तब इंसान, इंसान का बैरी हो जाता है। मानवीयता का लोप हो जाता है। इस अकाल भरे परिदृश्य में प्रेमचंद की ‘मंदिर और मस्जिद’ कहानी प्रासंगिक हो जाती है। कहानी में चौधरी इतरत अली नाम के बड़े जागीरदार हैं। दीन में पक्का यकीन रखने वाले, पाँचों वक्त के नमाजी, तीसों रोज़ें रखने वाले। पर गंगा में नहाते हैं। गंगा का पानी पीते हैं। जैसा स्वागत फकीरों का करते थे वैसा ही साधुओं का। उनका चपरासी हिंदू था, भजन सिंह नाम था उसका।

फ़िरका-परस्त लोगों को इस बात से बड़ी छिड़ थी। एक बार ठाकुरद्वारे में कृष्ण जन्मोत्सव मनाया जा रहा था, भजन–कीर्तन चल रहे थे कि पत्थर बरसाने लगते हैं। ख़बर चौधरी साहब तक पहुँच जाती है। चौधरी साहब भजन सिंह को भेजते हैं। वहाँ भजन के हाथों चौधरी साहब के दामाद की हत्या हो जाती है। भजन सिंह, चौधरी साहब से गिड़गिड़ाने लगता है।

“नहीं, मैं तुम्हारे ऊपर इल्ज़ाम नहीं रखता। भगवान के मंदिर में किसी को घुसने का अख़्तियार नहीं है। अफ़सोस यही है कि ख़ानदान का निशान मिट गया और तुम्हारे हाथों !बाकी जो ख़ुदा को मंजूर था वह हुआ। मैं अगर खुद शैतान के बहकावे में आकर मंदिर में घुसता और देवता की तौहीन करता, और तुम मुझे पहचान कर भी क़त्ल कर देते, तो मैं अपना ख़ून माफ़ कर देता। किसी के दीन की तौहीन करने से बड़ा और कोई गुनाह नहीं है।”

चौधरी साहब ने भजन सिंह को पुलिस की गिरफ्तारी से भी बचाया...

फिर एक बार जन्माष्टमी के जुलूस में कुछ लोग मस्जिद में घुस गए... चौधरी साहब को मालूम हुआ कि यह हरकत उनके ख़ास भजन सिंह की है। चौधरी साहब मस्जिद गए... भजन सिंह से कहा कि आपने मेरे खुदा की तौहीन की है, तुम्हें सज़ा दी जाएँगी, तुम्हारा कत्ल करूँगा।कहानी का अंत आप पढ़िए–

“ चौधरी साहब तलवार लेकर ठाकुर के सामने खड़े हो गये। विचित्र दृश्य था। एक बूढ़ा आदमी, सिर के बाल पके, कमर झुकी, तलवार लिये एक देव के सामने खड़ा था। ठाकुर लाठी के एक ही वार से उनका काम तमाम कर सकता था। लेकिन उसने सर झुका दिया। चौधरी के प्रति उसके रोम-रोम में श्रद्धा थी । चौधरी साहब अपने दीन के इतने पक्के हैं, इसकी उसने कभी कल्पना तक न की थी। उसे शायद धोखा हो गया था कि यह दिल से हिंदू हैं। जिस स्वामी ने उसे फाँसी से उतार लिया, उसके प्रति हिंसा या प्रतिकार का भाव उसके मन में क्योंकर आता । वह दिलेर था, और दिलेरों की भाँति निष्कपट था । इस समय उसे क्रोध न था, पश्चाताप था। मरने का डर नहीं था, दुख था ।”

चौधरी साहब ने दीन और इंसानियत के इस संघर्ष में इंसानियत को चुना। क्या आज यह संभव है। गांधी फ़िल्म का यह दृश्य देखिए। गांधी भी यही बात कह रहे थे, दंगों के बीच में।

इंसान बनना मुश्किल ज़रूर है असंभव नहीं

प्रेमचंद ने ‘हिंसा परमो धर्मः’ शीर्षक से एक कहानी लिखी। इस कहानी में एक पात्र है जामिद बौड़म नाम का।

“बिल्कुल बेफ़िक्र, न किसी से दोस्ती, न किसी से दुश्मनी। जो ज़रा हँस कर बोला, उसका बेदाम का गुलाम हो गया। बे-काम का काम करने में उसे मज़ा आता था। गाँव में कोई बीमार पड़े, वह रोगी की सेवा-सुश्रुषा के लिए हाज़िर है। कहिए, तो आधी रात हकीम के घर चला जाए; किसी जड़ी-बूटी की तलाश में जंगलों की खाक छान आए। मुमकिन न था कि किसी ग़रीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए।"

एक दफा शहर जाता है। थक कर एक मंदिर के चबूतरे पर बैठ जाता है। धर्म के इतने बड़े स्थानों को देखकर खुश होता है। मंदिर के ऊपर सुनहला कलश चमक रहा था; मगर आँगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था। जामिद से यह गंदगी देखी नहीं जाती। पवित्र स्थान को स्वच्छ भी होना चाहिए। झाड़ू ना मिलने पर वह दमन से ही सफाई शुरू कर देता है। हिंदू हैरान हैं कि एक मुसलमान आखिर क्यों मंदिर की सफाई कर रहा है! पहले तो शक होता है, अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इसे हिंदू बना लेना चाहिए।

एक दिन मंदिर में ज़मा होकर उसे हिंदू धर्म में ले आते हैं। खूब कीर्तन करता है। पर एक दिन एक हिंदू आदमी, बूढ़े मुसलमान को सिर्फ इसलिए मार रहा था क्योंकि उसकी मुर्गी इसके घर में आ गई थी। जामिद बूढ़े मुसलमान को बचा लेता है। मस्जिद का मुल्ला खुश हो जाता है। आख़िर अपना खून जो है, कहता है।

फिर एक दिन काज़ी एक हिंदू लड़की को लेकर आता है। जामिद उसे छोड़ देने का कहता है। काज़ी को धक्का देकर उस महिला को उसके घर छोड़ने जाता है। पंडित जी ने पूछा इस अहसान को कैसे चुकाऊँ ? जामिद कहता है– “इस शरारत का बदला किसी गरीब मुसलमान से ना लीजिएगा, मेरी आपसे यही दरखास्त है।”जामिद एक इंसान का फर्ज निभा रहा था। उसके लिए न्याय की भावना मजहब से ऊँची थी। आज जब सारी बहस ‘जिहाद’ शब्द के आस–पास भटक रही है, तब दोनों और के पवित्रता धारी लोगों को इंसान होने का अर्थ बतलाना जरूरी है।

हर क्रिया की प्रतिक्रिया से सारा संसार अंधा हो जाएँगा।

इस्लाम के प्रति सम्मान

प्रेमचंद ‘नबी का नीति–निर्वाह’ कहानी में जब इस्लाम का उद्भव हुआ था, तब की कथावस्तू को आधार बनाकर एक कहानी लिखते हैं। इस कहानी में प्रेमचंद का इस्लाम के प्रति सम्मान भरा नज़रिया जाहिर होता है। आज जब अपने-अपने मज़हब को मानने का संकीर्ण अर्थ निकाला जा रहा है कि दुसरे मज़हब की बुराई करो, तब इस अविभाजित नज़र का महत्त्व बढ़ जाता है।

प्रेमचंद ने ‘हिंदू–मुस्लिम एकता’ शीर्षक से एक निबंध लिखा था। जिसमें वो उन सारे सवालों का जवाब ढूँढने की कोशिश करते हैं, जिनसे हमारी मुठभेड़ रोज़ाना हो जाती है।

"यह बिलकुल गलत है कि इसलाम तलवार के बल से फैला। तलवार के बल से कोई धर्म नहीं फैलता, और कुछ दिनों के लिए फैल भी जाए, तो चिरजीवी नहीं हो सकता। भारत में इसलाम के फैलने का कारण, ऊँची जाति वाले हिंदुओं का नीची जातियों पर अत्याचार था। बौद्धों ने ऊँच-नीच का भेद मिटाकर नीचों के उद्धार का प्रयास किया और इसमें उन्हें अच्छी सफलता मिली लेकिन जब हिन्दू धर्म ने जोर पकड़ा, तो नीची जातियों पर फिर वही पुराना अत्याचार शुरू हुआ, बल्कि और जोरों के साथ। ऊँचों ने नीचों से उनके विद्रोह का बदला लेने की ठानी। नीचों ने बौद्ध काल में अपना आत्मसम्मान पा लिया था। वह उच्चवर्गीय हिंदुओं से बराबरी का दावा करने लगे थे। उस बराबरी का मज़ा चखने के बाद, अब उन्हें अपने को नीच समझना दुस्सह हो गया। यह खींचतान हो ही रही थी कि इसलाम ने नए सिद्धांतों के साथ पदार्पण किया। वहाँ ऊँच-नीच का भेद न था। छोटे-बड़े, ऊँच-नीच की कैद न थी। इसलाम की दीक्षा लेते ही मनुष्य की सारी अशुद्धियाँ, सारी अयोग्यताएँ, मानो धुल जाती थीं। वह मस्जिद में इमाम के पीछे खड़ा होकर नमाज पढ़ सकता था, बड़े बड़े सैयद-जादे के साथ एक दस्तरखान पर बैठकर भोजन कर सकता था। यहाँ तक कि उच्च वर्गीय हिंदुओं की दृष्टि में भी उसका सम्मान बढ़ जाता था। हिंदू अछूत से हाथ नहीं मिला सकता, पर मुसलमानों के साथ मिलने-जुलने में उसे कोई बाधा नहीं होती। वहाँ कोई नहीं पूछता, कि अमुक पुरुष कैसा, किस जाति का मुसलमान है। वहाँ तो सभी मुसलमान हैं। इसलिए नीचों ने इस नए धर्म का बड़े हर्ष से स्वागत किया, और गाँव के गाँव मुसलमान हो गये। जहाँ उच्च वर्गीय हिंदुओं का अत्याचार जितना ज़्यादा था, वहाँ वह विरोधाग्नि भी उतनी प्रचंड थी और वहीं इसलाम की तबलीग भी खूब हुई। कश्मीर, असम, पूर्वी बंगाल आदि इसके उदाहरण हैं।"

इस्लाम का ऐसा बखान प्रेमचंद कर रहे हैं। ऐसी कई कहानियाँ प्रेमचंद ने लिखी थीं जिनमें हिंदुस्तानी साजेपन को पाठकों के सामने पेश किया है।

 सिर्फ कहानियों में ही नहीं उपन्यासों में भी प्रेमचंद उस वक्त की समस्याओं से जूंझ रहे थे। 1926 में लिखा कायाकल्प उपन्यास सांप्रदायिकता की समस्या के इर्द–गिर्द ही बुना गया है। दोनों तरफ़ के कुछेक स्वार्थी लोगों के कारण दंगे हो जाते हैं। जिसका नतीजा झुनिया जैसी कई मासूम महिलाओं को झेलना पड़ता है।

असली चेहरा दिखाते प्रेमचंद

सन् 1934 में ‘सांप्रदायिकता और संस्कृति’ शीर्षक से एक निबंध लिखा था। इस मजमून में प्रेमचंद संस्कृति की आड़ लेकर अपना उल्लू सीधा करने वालों की खैर–ख़बर लेते हैं। मुल्क में मौजूद विविधताओं को पाठक के सामने रखते हैं। कई मौकापरस्त लोग आमजन से फायदा उठाने की कोशिश करते हैं; कभी मज़हब के नाम पर तो कभी संस्कृति की दुहाई देकर। और मजेदार बात यह है कि आज भी वैसे लोगों की कोई कमी नहीं है। काल्पनिक खतरों को गढ़ कर जनता का ध्यान भटका देते हैं–“जब जनता मूर्च्छित थी, तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जाग्रत् होती जाती है, वह देखने लगती है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी, जो राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगतसेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिन्ता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है। उस पुरानी संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है। और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ से आँखे बंद किए हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।”

आप प्रेमचंद की इन कहानियों को आदर्शवाद की कपोल कल्पना कह कर खारिज़ नहीं कर सकते हैं। यह एक साहित्यकार का जतन है, इंसान को इंसान बनाने का, सृजन के बीज को बोने का। आज जब हिंदू–मुसलीम के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है, अविभाजित नज़र से लिखने वाले लेखकों की कमी महसूस की जा रही है तब प्रेमचंद बोलेंगे, हिंदुस्तान की आवाज़।

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