हमारे उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ 

काशी, तारीख से पुराना शहर। संस्कृति और अदब से आबाद शहर। घाटों का शहर। इस शहर के एक घाट पर बना है बालाजी का मंदिर। जिसकी दहलीज़ पर बने नौबतखाने से रोज मंगलध्वनि गूंजा करती थीं।

इसी मंदिर की ड्योढी पर एक फ़कीर ने अपना पूरा जीवन खपा दिया। उसे सुर की तलाश थी; एक ऐसे सुर की खोज जिससे तासीर पैदा हो। सुर के लिए मन्नत मांगी, जीवन भर।बचपन में उन्हें ‘अमीरुद्दीन’ नाम से बुलाते थे।लेकिन, आज दुनिया जानती है ‘बिस्मिल्लाह’ के नाम से। मेरी उमर करीब 7 बरस रही होगी जब आपने इस दुनिया को अलविदा कहा। पर आपकी गमक तो आज भी कायम है। काशी की कल्पना आपकी बिना अधूरी है। बाबा विश्वनाथ की पेढ़ी आपके बिना सूनी है।

किस्मत से मेरा जन्म एक ऐसे इलाके में हुआ जो कि साहित्यिक रूप से अभावग्रस्त था/है। यहाँ के रस्मों–रिवाज़ में शहनाई का नामोनिशान नहीं है। पर गंगा का है। हमारे बूढ़े जब काशी–हरिद्वार जाते थे तो वहाँ से गंगा का जल लेकर आते थे। समय–समय पर मुझे गंगाजल की दो बूंद अपने इलाके के पानी में मिलाकर घर को पवित्र करने का कहा जाता था। तब से काशी मेरे ज़हन में इश्क़ की तरह पल रही है। इसी लगाव ने मुझे आपसे मिलवाया।फिर क्या? फिर हमें आपसे भी हो गई बेपनाह मोहब्बत।

दुनिया में आपने शहनाई के साथ–साथ काशी को भी इज़्जत बख्शी थी।

मिरे ज़हन में काशी की कल्पना आपने बुनी। यूट्यूब पर रखे कई विडियोज में आप बोलते हैं– “क्या करें मियां, ई काशी छोड़कर कहाँ जाएँ? गंगा मैया यहाँ, बाबा विश्वनाथ यहाँ, बालाजी का मंदिर यहाँ, यहीं पर हमारे खानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है, हमारे नाना तो बालाजी मंदिर में बड़े प्रतिष्ठित शहनाई वाज रहे हैं, अब हम क्या करें? मरते दम तक न ये शहनाई छूटेगी न ही काशी। जिस जमीन ने हमें तालीम दी, जहाँ से अदब पाई, वो कहाँ और मिलेगी? शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं है धरती पर हमारे लिए।”

इस तमीज ने आपको बिस्मिल्लाह बनाया, गंगा मैया का सपूत बनाया। आपने एक किस्सा शिकागो विश्वविद्यालय का बताया था कि वहाँ कुछ सज्जन आदमियों ने आपसे विनती की कि यहीं रुक जाइए। बनारस जैसा माहौल रहने के लिए बना देंगे। आपने कहाँ, वो सब तो ठीक है मियां पर गंगा कहाँ से लाओगे?

आपने जिस गंगा को माँ का दर्जा दिया था, सलीके से उसे निभाया। भोर होते ही आप उठ जाते थे। फिर गंगा से वुज़ू कर नमाज अदा करने। वहाँ से बालाजी के मंदिर। सरस्वती को सजदा कर मंगलध्वनि को फैला देते थे पूरे बनारस में।

आप गंगी–जमुनी तहजीब के मजबूत सिपाही थे। गांधी के असली वारिस। जब नफ़रत के सौदागरों ने काशी के संकटमोचन मंदिर पर हमला किया था तब आप गांधी की तरह उसके खिलाफ खड़े थे। बिलकुल वैसे ही जैसे गांधी दिल्ली के बिड़ला भवन में खड़ा था। आपने कुछ भी नहीं बोला, अपनी शहनाई उठाई और गंगा के एक किनारे पर बैठ गए। वहाँ आपने एक भजन गाया जिसे गांधी को बेहद लगाव था– “रघुपति राघव राजा राम... ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान”।

नेहरू की आत्मा ये देखकर खुश हुई होगी। आजादी के दिन नेहरू के आगे–आगे आप चल रहे थे।आप एक धर्मनिरपेक्ष देश की आजादी का उद्घोष कर रहे थे। जहाँ मानवता से ऊपर कुछ भी नहीं। मज़हब से आपको कोई बैर नहीं था। आप पाँच वक्त की नमाज अदा करने वाले नमाजी। हज की यात्रा करने वाले हाजी। हजरत इमाम हुसैन के प्रति अजादरी पेश करने वाले एक सच्चे मुसलमान थे आप, एक सच्चे हिंदुस्तानी।

संकटमोचन हनुमान जी के मंदिर पर संगीत का जलसा होता था, वहाँ आप पहली कतार में बैठते थे। आपके बिना वो महफ़िल अधूरी रहती होगी। आपको हिंदुस्तान के सबसे ऊँचे सम्मान से नवाजा गया। लेकिन, मोह–माया कभी आपको अपने आगोश में नहीं दबा सकीं। एक किस्सा बड़ा गुदगुदाता है मुझे–“एक शिष्या ने आपसे गुजारिश की कि बाबा आप ये क्या करते हैं, इतनी प्रतिष्ठा है आपकी, अब तो आपको भारत रत्न भी मिल चुका है फिर यह फटी तहमद क्यों पहनते हो? अच्छा नहीं लगता।” खान साहब मुस्कुराए और प्यार भरे लहजे में जवाब दिया “धत! पगली ई भारत रत्न हमको शहनईया पे मिला है, लूंगिया पे नाही। मालिक से यही दुआ है कि फटा सुर न बख्शें। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएंगी”

ऐसे ही ठेठ बनारसी लहजा झलका आपमें। आपने बनारस को जिया बनारस ने आपको। पूरे देश में आपकी शहनाई गूंजी, पूरा हिंदुस्तान आपकी शहनाई की आवाज सुनकर उठ जाता था। दुनिया के तमाम हिस्सों में आपकी शहनाई गूंजी। इसके बावजूद आप बनारसी बने रहे। कजरी, चैती, सावनी जैसी लोक बंदिशों से आपने कभी नाता नहीं तोड़ा। गिरिजा देवी के साथ आपने लोक संस्कृति की महक को दुनिया के सामने बिखेरा।

पर दुःख भी होता है ये सब देख कर। क्योंकि अब अंधेरा घेर रहा है काशी को। शायद आपकी देह से बनी राख गंगा में पड़ी पड़ी रो रही होगी। कुछ दिन पहले संस्कृत के एक मास्टर का बनारस में सिर्फ इसलिए विरोध किया गया क्योंकि उसका मजहब हिंदू नहीं था। दु:ख आपके साथ–साथ पंडित कंठे महाराज व मौजुद्दीन खां को भी हुआ होगा। अब अदब बीते अतीत की पहचान बने जा रही है। मादर ए वतन से मोहब्बत के नाम पर मजहब की झूठी दीवारें खड़ी की जा रही हैं। तमीज सिखाने वाला बिस्मिल्लाह फिर लौट के नहीं आएगा मुझे पता है ये बात।...

उस्ताद आप याद आते हैं... आज के दिन आपकी पैदाइश है... आपका जन्मदिन है... आज आप 110 बरस के हो गए हो... फिर याद करूंगा।

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ashok

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गाँव का बाशिंदा, पेशे से पत्रकार, अथातो घुमक्कड़...