साहित्य की दुनिया में प्रेमचंद की विरासत को फणीश्वर नाथ रेणु ने संभाला। रेणु ने पाठकों को प्रेमचंद की कमी नहीं खलने दी; होरी जैसे किरदारों की परंपरा बिना किसी रुकावट के निरंतर चलती रही। रेणु की कलम से जो भी लिखा गया उसमें मानवीय संवेदना और सामाजिक यथार्थ की सोंधी महक रह–रहकर आती रहती है। हिंदी साहित्य के इस ‘संत लेखक’ ने गंवई इलाकों की हकीकत को बिना भाषाई आडंबर ओढ़े, आंचलिक बोलचाल की भाषा में दर्ज किया।
जैसा देखा वैसा लिख दिया। बाढ़ को देखा तो बाढ़ को लिखा। धरती पर तैरती लाशों को दर्ज किया। धरती के लाश बन जाने को दर्ज किया। गौरतलब है कि बाढ़ उत्तर भारत के कई राज्यों की प्रमुख समस्या रही है। माफ कीजिए अभी भी बनी हुई है। थोड़े दिन बाद मानसून दस्तक देगा। उसके साथ बाढ़ भी प्रकट हो जाएगी। लेकिन सरकारी महकमे की नींद आसानी से नहीं टूटती है और न ही दिल्ली की मीडिया का ध्यान उस तरफ जाता है। 50–100 लोगों की कुर्बानी ध्यान खींचने के लिए पहली शर्त है।
रेणु ने अपने उपन्यासों में बाढ़ के दंश को पिरोया है। बाढ़ से उपजी पीड़ा को पाठकों के अंतर्मन तक पहुंचाया है। लेकिन उपन्यासों से इतर रेणु ने बाढ़ पर कई रिपोर्ताज लिखे हैं। आजादी के आस–पास (सन् 1947 में) रेणु की कलम ने ‘जै गंगे’ रिपोर्ताज लिखा। फिर 1948 में ‘डायन कोसी’ नाम से एक रिपोर्ताज लिखा; जो कि समाजवादी दल की पत्रिका ‘जनता’ में छपा था।
आजादी के बाद भारत में ‘जन–तंत्र’ आया था; ऐसा किताबों में पढ़ा। जन के लिए तंत्र ने बैराज बनाए, तटबंध बनाए; पर तट से बंध खुलता रहा, बाढ़ विकराल रूप धारण कर आती रही, राहत नहीं मिली।
....यह तो हर साल की बात है। हर साल बाढ़ आती है-बर्बादियां लेकर। रिलीफें आती हैं, सहायता लेकर। कोई नई बात नहीं। पानी घटता है। महीनों डूबी हुई धरती। धरती तो नहीं, धरती की लाश बाहर निकलती हैं। धरती की लाश पर लड़खड़ाती हुई जिंदे नरकंकालों की टोली फिर से अपनी दुनिया बसाने को आगे बढ़ती है। मेरा घर यहां था… वहां तुम्हारा… पुराना पीपल मेरे घर के ठीक सामने था… देखो, न मानते हो तो नक्शा लाओ… अमीन बुलाओ, वर्ना फौजदारी हो जाएगी…
‘कोसी: पुरानी कहानी, नया पाठ’ शीर्षक के साथ रेणु ने सन् 1964 में फिर बाढ़ पर एक रिपोर्ताज लिखा। ये सिलसिला आखिरी दिनों तक चलता रहा। रेणु 1974 के जेपी आंदोलन में, पहली कतार में खड़े थे। जेल गए। जेल से छूटे। डेरा पटना में डाला हुआ था।
सन् 1975 में पटना शहर प्रलयकारी बाढ़ के पानी से लबालब भर हुआ था। रेणु इस बाढ़ के भुक्तभोगी थे। एक मकान की दूसरी मंजिल में फंसे हुए। आस–पास सिर्फ पानी ही पानी था। तैरती लाशे और तैरती खबरें पहुंच रही थी। करुणा और संवेदना में भीगी कलम उठाई और एक रिपोर्ताज लिख दिया। इसमें प्रशासन को एक–आध बार याद किया फिर छोड़ दिया; बिलकुल वैसे ही जैसे तंत्र ने छोड़ दिया था जन को हर बार की तरह।
रेणु की ख्वाहिश थी कि ‘ऋणजल धनजल’ नाम से रिपोर्ताज का संकलन छपवाया जाए।लेकिन वो चल बसे। उनकी भौतिक काया चल बसी पर लेखन हमारे पास है। राजकमल प्रकाशन ने इस किताब को छापा है, ‘ऋणजल धनजल’ नाम से। जिसमें 1975 की बाढ़ और सन् 1966 के सुखाड़ पर लिखे रिपोर्ताज शामिल हैं।
रेणु बताते हैं कि कैसे बाढ़ के प्रकोप के बावजूद लोगों में जिजीविषा कायम है। - साल में छह महीने बाढ़, महामारी, बीमारी और मौत से लड़ने के बाद बाकी छह महीनों में दर्जनों पर्व और उत्सव मनाते हैं। पर्व, मेले, नाच, तमाशे! सांप पूजा से लेकर सामां-चकेवा, पक्षियों की पूजा, दर्द-भरे गीतों से भरे हुए उत्सव! जी खोल कर गा लो, न जाने अगले साल क्या हो। इसलिए कोसी अंचल में बड़े-बड़े मेले लगते हैं। सिर्फ पौष-पूर्णि मा में कोसी के किनारे, मरी हुई कोसी की सैकड़ों धाराओं के किनारे भी सौ से ज्यादा मेले लगते हैं। कोसी नहान मेला और इन मेलों में पीड़ित प्राणियों की भूखी आत्माओं को कोई स्पष्ट देख सकता है। काला-आजार में जिसके चारों जवान बेटे मर गए, उस बूढ़े किसान को देखिए, कार्निवल के अड्डे पर चार आने के टिकट में ही ग्रामोफोन जीत लेने के लिए बाजी लगाता है, वह जवान विधवा कलेजे के दाग को ढंकने के लिए पैरासूट का ब्लाउज खरीद कर कितना खुश है! इलाके का मशहूर गोपाल अपनी बची हुई अकेली बुढ़िया गाय को बेच कर सपरिवार नौटंकी देख रहा है… लल्लन बाई गा रही है, ‘चलती बेरिया नजर भरके देख ले।’ आकाश में पौष-पूर्णिमा का सुनहला चांद मुस्करा कर उग आया, कोसी भक्त जनता डुबकी लगाती है, ‘जय, कोसी मैया की जय!’ और सफेद बालुओं की ढेर में डेग भर की पतली-सी सिमटी, सिकुड़ी धारा! कोसी मैया चुपचाप बहती जाती है। डायन!
रेणु ने ‘कोसी: पुरानी कहानी, नया पाठ’ में ‘जनसेवकों’ की जमकर हाजिरी लगाई है। हारे हुए जन–प्रतिनिधि और जीते हुए जन सेवक दोनों के लिए बाढ़ एक अवसर बनकर आई है। इस क्षेत्र के पराजित उम्मीदवार, पुराने जन-सेवकजी का सपना सच हुआ। कोसका मैया ने उन्हें फिर जनसेवा का ‘औसर’ दिया है। ...जै हो, जै हो! इस बार भगवान ने चाहा तो वे विरोधी को पछाड़कर दम लेंगे। वे कस्बा रामनगर के एक व्यापारी की गद्दी से टेलीफोन करके जिला मैजिस्ट्रेट तथा राज्य के मंत्रियों से योगसूत्र स्थापित कर रहे हैं – “हैलो! हैलो... !”
राजधानी के प्रसिद्ध हिंदी दैनिक –पत्र के स्थानीय निज संवाददाता को बहुत दिन के बाद ऐसा महत्वपूर्ण समाचार हाथ लगा है-क्या? प्रेस-टेलीग्राम का फार्म नहीं है? … ट्रा- ट्रा-टक्का-टक्का-ट्रा-ट्रा...!
“हैलो हैलो। हैलो पुरनियां, हैलो पटना, हैलो कटिहार।”
... ट्रा-ट्रा-टक्का-टक्का ...!
“हैलो, मैं जनसेवक शर्मा बोल रहा हूं। जी? जी करीब पचास गांव एकदम जलमग्न-डूब गये। नहीं हुजूर नाव नहीं गांव। गांव माने विलेज जी? कुछ सुनायी नहीं पड़ रहा जी? नाव एक भी नहीं है। हुजूर डी.एम. को ताकीद किया जाय जरा। जी? इस इलाके का एम.एल.ए.? जी, वह तो विरोधी पार्टी का है। जी...जी? ...हैलो-हैलो-हैलो!”
जनसेवकजी ने संवाददाता को पोस्ट ऑफिस के काउंटर पर पकड़ा और उसे चाय की दुकान पर अपना बयान लिखाने के लिए ले गये। किंतु चाय की दुकान पर सुविधा नहीं हुई, तो उसे अपने डेरे पर ले गये। लिखो – “स्मरण रहे कि ऐसा बाढ़... बाढ़ स्त्रीलिंग है? तब, ऐसी बाढ़ ही लिखो। हां, तो स्मरण रहे कि ऐसी बाढ़ इसके पहले कभी नहीं आयी...।”
“किंतु दस साल पहले तो....?”
“अजी, दस साल पहले की बात कौन याद रखता है! तो लिखो ‘कि सूचना मिलते ही आधी रात को मैं बाढ़ग्रस्त इलाके..। ’ और सुनो, आज यह ‘स्टेटमेंट’ चला जाये। वक्तव्य सबसे पहले मेरा छपना चाहिए।”
संवाददाता अपनी पत्रकारोचित बुद्दि से काम लेता है- “लेकिन एमएलए साहब ने तो पहले ही बयान दे दिया है – ‘फर्स्ट प्रेस ऑफ इंडिया’ को सीधे टेलीफोन से।”
जनसेवक शर्मा का चेहरा उतर गया।... इतने दिन के बाद भगवान ने जन-सेवा का औसर दिया और वक्तव्य चला गया पहले विरोधी का? दुश्मन का? चीनी आक्रमण के समय भी भाषण देने और फंड वसूलने में वह पीछे रह गये। और इस बार भी?
“सुनो! मैंने कितने बाढ़ग्रस्त गांवों के बारे में लिखाया था? पचास? उसको डेढ़ सौ कर दो। ...ज्यादा गांव बाढ़ग्रस्त होगा तो रिलीफ भी ज्यादा-ज्यादा मिलेगा, इस इलाके को। अपने क्षेत्र की भलाई के लिए मैं सब कुछ कर सकता हूं। और झूठ क्यों? भगवान ने चाहा कल तक तो दो सौ गांव जलमग्न हो जा सकते हैं!”
संवाददाता को अपना वक्तव्य देने के बाद उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की विशेष ‘आवश्यक और अरजेंट’ बैठक बुलायी। वक्तव्य में उन्होंने जिस बात की चर्चा नहीं की, उसी पर विशेष प्रकाश डालते हुए सुझाया – “यह जो बरदाहा-बांध बना है पिछले साल, इसके कारण इस कस्बा रामपुर पर भी इस बार खतरा है। पानी को निकास नहीं मिला तो कल सुबह तक ही-हो सकता है-पानी यहां के गाड़ीवान टोला तक ठेल दे!”
गाड़ीवान टोले के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने एक-दूसरे की ओर देखा। आंखों-ही-आंखों में गुप्त कार्रवाई करने का प्रस्ताव पास हो गया।
दूसरे दिन सुबह को संवाददाता ने नया संवाद भेजा – “आज रात बरदाहा- बांध टूट जाने के कारण करीब डेढ़ सौ गांव फिर डूबे...।”टक्का-टक्का-ट्रा-ट्रा-ट्रा! ! जनसेवकजी ‘ट्रंक’ से पुकारने लगे – “हैलो-हैलो-हैलो पटना, हैलो पटना.. ! !”
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