ढलती सरदी की देहरी पर बैठा फरवरी, प्रीत का महीना है। प्यार की दुनिया में यकीन रखने वाले लोग अपनी मोहब्बत का इज़हार करते हैं। दिल के जज्बातों को फूल की कोमल पंखुड़ियों से बने गुलदस्तें में समेट कर जाहिर करते हैं। पर मुलाकात संभव नहीं हो तो? प्यार की अविरल धारा तो सदियों से बह रही है, कभी नहीं रुकती।। पुरखे चिट्ठी लिखा करते थे। जब खत नहीं आता था तब गीत गाते थे “न चिट्ठी न संदेश न जाने कौनसे देस तुम चले गए”.
खैर! ऊपर वाला पैराग्राफ शुभकामनाएं देने के लिए लिखा है। आज, बात संगीत पर न होकर संगीत सुनाने वाली मशीन (रेडियो) पर है।
दुनिया में रेडियो, 20 वीं सदी की पो फटने के साथ आया था। दूसरे महायुद्ध की तहस–नहस के बाद यूनाइटेड नेशन ने रेडियो को नए सिरे से शुरू किया। शुरुआत की तारीख 13 फरवरी थीं। उसी दिन को याद करते हुए साल 2013 से, हर बरस विश्व रेडियो दिवस मनाया जा रहा है। हर साल नई थीम के साथ। इस बरस की थीम है रेडियो और शांति। जब चहुओर अशांति की ज्वाला भड़क रही हो, रेडियो अपने संगीत, मनोरंजन और खबरों की चमक–दमक से आग की आगोश को कम करेगा, ऐसी उम्मीद की जा रही है!
रेडियो से सिर्फ आवाज़ का संबंध नहीं है, संबंध भावनाओं का है, जज़्बात का है, बचपन से लेकर अकलेपन से पकी उमर तक का है।
बड़े रेडियो ठिकानों की धमक दूर तक जाती है। आज–कल की इंटरनेट वाली दुनिया में आप देश के किसी भी कोने से आकाशवाणी को सुन सकते हैं। लेकिन, इन स्टेशनों के सामने आपकी फरमाइशें काम नहीं करती हैं, भाव घट जाता है। जो सुनाया जा रहा है उसे सुनना होता है। आपके कूचों की बातें, इन बड़े रेडियो घरानों में नहीं गूंजती है।
रेडियो दिवस के बहाने, बड़े रेडियो स्टेशनों से इतर सामुदायिक रेडियो स्टेशनों को भी याद किया जाना चाहिए। जहां आमजन की फरमाइश को तवज्जो दी जाती है, गली–मोहल्ले की खबरों को प्रमुखता से सुनाया जाता है, आम बोली में आमजन तक मनोरंजन पहुंचाया जाता है।
भारत में, सामुदायिक रेडियो के हालात मरुस्थल में पानी की सुलभता जैसे है। लगभग 140 करोड़ की आबादी वाले देश में सामुदायिक रेडियो के केवल 394 स्टेशन ही काम कर रहे हैं। नाम मात्र के इन स्टेशनों में से कई स्टेशन शिक्षण संस्थानों से जुड़े हुए हैं। वरिष्ठ पत्रकार विपुल मुद्गल बताते हैं कि यूरोप के छोटे–छोटे देशों में स्टेशनों की संख्या एक हजार से ज्यादा है। सुप्रीम कोर्ट की माने तो एयर वेव्स पर जनता का अधिकार है। फिर, ये कमी क्यों? जबकि सामुदायिक रेडियो 90 दिन तक की रिकॉर्डिंग रखते हैं।
मुद्गल जापान का उदाहरण देते हैं, जापान में सामुदायिक रेडियो का जाल बिछा हुआ है। अगर जापान का आपदा प्रबंधन अव्वल दर्जे का है तो उसके पीछे सबसे बड़ा हाथ सामुदायिक रेडियो स्टेशनों का है। अगर भारत में सामुदायिक रेडियो स्टेशनों की प्रचुरता होती तो शायद उत्तराखंड की त्रासदी में इतने लोग नहीं मरते।
ऊपर दिए गए वीडियो को देखिए। ये स्टोरी हरियाणा के नूह में कार्यरत रेडियो मेवात का दर्शन करवाता है। कोविड महामारी के समय सबसे चुनौती सही सूचना को पहुंचाने की थी, आम लोगों की इस पहल ने प्रशासन के काम को आसान कर दिया। महामारी में महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों में बढ़ोतरी हुई थीं, ये वीडियो देखिए कैसे रेडियो मेवात ने काम किया।
गुड़गांव की आवाज़ नाम का एक सामुदायिक रेडियो स्टेशन मलिन बस्ती के लोगों में जागरूकता फैलाने का काम करता है, जागरूकता साफ–सफाई से लेकर व्यक्ति के स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर रहती है। साथ ही, थक–हार के घर आते आत्मलोपित मजदूरों को पसंद के लोक गीत सुना कर थकान दूर करने की कोशिश भी करता है।
विज्ञापनों का विकल्प
सरकार, जन कल्याण के लिए कई तरह की योजनाएं लाती है। उन योजनाओं के बारे में नागरिकों को साक्षर करने के लिए विज्ञापन का सहारा लेती है। विज्ञापन के लिए बड़ी–बड़ी कंपनियों को मोटी रकम देना पड़ता है। लेकिन, कम्यूनिटी रेडियो नाममात्र के खर्चे में ये काम कर देते हैं। ये रेडियो आमजन की स्थानीय भाषा में काम करते हैं, ऐसे में मूल भाव बेहतर तरीके से पहुंचेगा।
लोककला और लोगों का रेडियो
चमकीली सिनेमाई दुनिया के दौर में लोक कला नेपथ्य में पहुंच गई है। उसकी सार –संभाल लेने वाले विलुप्ति के कगार पर है। तब ये रेडियो सहारा बनकर आता है। सीमित संसाधनों के बूते लोककला को जीवटता दे रहे हैं। महामारी में बच्चों की शिक्षा पर बुरा असर पड़ा था। महामारी के बाद भी गरीबों की संतान अतीत के भार को ढो रही है। कुछ कम्यूनिटी रेडियो इस मामले में अच्छा काम कर रहे हैं।
ये सही है कि एफएम रेडियो के लिए बड़ी फीस अदा की जाती है। पर कम्यूनिटी रेडियो से आपदा में कई लोगों की जान बचाई जा सकती है, लोककला को सहारा मिलेगा, जागरूकता बढ़ेगी, नए सितारों को मौका मिलेगा।
Write a comment ...