नामवर जी का जीवन–फ़लक इतना विस्तृत है कि उसे समेटना मेरे जैसे ख़ाकसार के बस की बात नहीं है। फिर भी, उनके जन्मदिन के मौके पर याद किये बगैर रहा नहीं गया।
नामवर जी ने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत तो एक कवि के रूप में की थी; पुनीत तखल्लुस भी रखा था। पर नामवर जी का जो रूप हमारे सामने मौजूद है वो एक आलोचक का रूप है। एक बार नामवर जी ने एक साक्षात्कार में कहा भी था कि गए तो थे सरस्वती की पूजा करने पर वहाँ कचरा इतना दिखा की झाड़ू उठा ली।
कुम्हार के घर जब बर्तन खरीदने जाते हैं तो पोर से ठोककर यह जाँच की जाती है कि बर्तन पका हुआ है या नहीं। साहित्य की दुनिया में आलोचक की भूमिका भी कुछ उसी तरह की होती है।
हिंदी साहित्य जगत में आचार्य रामचंद्र शुक्ल नाम के एक विद्वान हुए थे। उनकी व्याख्याओं को चुनौती दी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने। नामवर जी आचार्य द्विवेदी के शिष्य थे। बनारस विश्व–विद्यालय में गुरु–शिष्य की जोड़ी बनी थी। आगे चलकर नामवर जी ने ‘दूसरी परम्परा की खोज’ नाम से एक किताब भी लिखी थी। यह किताब अपने गुरु की साहित्य-दृष्टि को पेश करती है।
बहर–हाल, नामवर जी के आलोचक जीवन की शुरुआत ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ किताब के साथ हुई थी। यह सन् 1950 के आस–पास की बात रही होगी। (हिंदी के प्रारंभिक रूप को अपभ्रंश के नाम से जाना जाता है।) अपभ्रंश पर लिखी अपनी पहली किताब में नामवर जी ने जैन कवि स्वयंभू और सिद्ध कवि सरहपा की कविताओं का विश्लेषण किया।
लेखक राहुल सांकृत्यायन ने एक बार दुखी होकर कहा था कि बेचारी अपभ्रंश मारी गयी। लेकिन, नामवर जी की अपभ्रंश पर की गई सटीक व्याख्याओं ने अपभ्रंश को फिर से विमर्श का हिस्सा बना दिया। कवि स्वयंभू की ‘पउम चरिउ’ (अपभ्रंश में लिखी गई जैन रामायण) के सीता के चरित्र का विश्लेषण आज भी प्रासंगिक है।
सरहपा जैसे शुरुआती कवियों से होते हुए पृथ्वीराज रासो से लेकर आधुनिक काल में मुक्तिबोध तक की कविताओं पर मार्मिक और सटीक टिप्पणी करना सिर्फ नामवर की कलम से ही संभव है।
‘कविता के नये प्रतिमान’ किताब के माध्यम से जनकवि मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की समीक्षा की। जिसमें कविता के अंदर मुक्तिबोध के आत्म-संघर्ष को दिखाया है। और यह संघर्ष हर मध्यवर्गीय आदमी के जीवन में चलता रहता है कि मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!
आपने छायावादी काव्यधारा के बारे में तो सुना ही होगा। ये हिंदी साहित्य की एक प्रमुख काव्य धारा रही है। सन् 1900 से 1936 तक। आचार्य शुक्ल ने इसे राह में रोड़े की तरह देखा था। जिसके जवाब में कई आलोचकों ने अपनी–अपनी व्याख्याएँ पेश की। इसमें डॉ.नामवर सिंह की व्याख्या सबसे सटीक और अधिक स्वीकार्य मानी जाती है।
नामवर जी, हिंदी के अनमोल रत्न थे, प्रगतिवादी हिंदी आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर। हिंदी जगत उनके योगदान का हमेशा ऋणी रहेगा।
"अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..."
चित्र:- साभार इंटरनेट.
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