पत्रकार कौम जरूर देखें : फिल्म ‘लॉस्ट’

अखबार में छपी हरेक ख़बर नवीनता के आभूषण को धारण करके आती है। ये ख़बरें लिखता कौन है ? एक पत्रकार। इन अख़बारनवीस लोगों के लिए समाचार लिखना कितना आसान है? जिन ख़बरों को पाठक चन्द लम्हों में पढ़ लेता है उसके पीछे एक पत्रकार की लंबी मेहनत रहती है। एक–एक तथ्य को सजोंकर पन्ने पर छापा जाता है, हरकारा ख़बर पहुंचा देता है। इन तथ्यों को संवाददाता तक कोई शख्स थाली में परोस कर नहीं देता, उन्हें खुद ढूँढ़ने होते हैं। तलाश करने की चाहत नामा-निगार को ख़बर की तह तक पहुंचाती है। ऐसी ही एक ख़बर को छापने की चाहत में एक महिला पत्रकार कई तरह के झंझावातों से गुजरती है।

इस पत्रकार को खबर के मांजने के क्रम में लंबा जतन करना पड़ता है। इसी यत्न को एक सिलसिलेवार ढंग से सिनेमाई परदे पर उतारा है। फ़िल्म का नाम लॉस्ट है। देखने के लिए जी5 पर जाना होगा।

फ़िल्म की धुरी में एक स्थानीय टीवी की एंकर है। जिसके एक ओर प्रेमी है और दूसरी ओर सत्ता के नशे में चूर मंत्री महोदय। धन के चश्मे से देखने पर आशिक के हाथ खाली दिखते हैं। हाथों में सिर्फ मोहब्बत है। पर लालच की आंधी में प्यार कहां दिखता है। मंत्री की मेहरबानी से मोहतरमा ऐशो–आराम की जिंदगी जीने लगती है। लेकिन, आशिक को इसका हिसाब चुकाना पड़ता है। उसके सपनों पर तुषारापात हो जाता है, अपहरण हो जाता है। खबर फैला दी जाती है कि अपहरण नहीं हुआ, लड़का माओवादी बन गया है। खबर यही है। इसी की तह तक जाने की कोशिश एक रिपोर्टर करती है। क्या वाकई आशिक़ माओवादी बन गया था? इसका जवाब फ़िल्म देगी।

Give the dog a bad name and hang it!

हाल–फिलहाल की खबर है, झारखंड में महिलाओं को डायन बताकर मार दिया था, मारा जा रहा है। जेएनयू में पढ़ने वालों पर देशद्रोही जैसी फब्तियां कसी जाती है। सत्ता की हां में हां नहीं मिलाने वालों को अर्बन नक्सली की उपाधि दी जाती है। जो समाज के ढर्रे से इतर सोचे उसे संस्कारविहीन के खिताब से नवाजा जाता है। ये किसी को टैग देने का अधिकार किसने दिया ?

समाज की संकीर्णता पर हथौड़ा

बच्ची के जन्म से ही उसे खास तरह के सांचे में ढालने की शुरुआत हो जाती है। लड़की हो! ये नहीं कर सकती वो नहीं कर सकती। पर क्यों? इसका वाजिब जवाब किसी के पास नहीं रहता। फ़िल्म ऐसी कई दीवारों को ढहाने की कोशिश करती है। डर से भरे लोग डराने की भरपूर कोशिश करते हैं। लेकिन, हर कोशिश नाकामयाब रही।

नेताओं के साथ समाज

नेता, समाज की छत्रछाया में पनपता है। समाज की सहमति के बिना कोई भी झंडेदार कोई निर्णय नहीं लेता है। समाज में रहने वाला हरेक जन कभी जाने तो कभी अनजाने में अपराध करता है। खुद के उदार होने का दंभ भरने वाले भी खुद के हित में उदारता का चोला उतार देता है। चोला उतरते ही सच्चाई सामने आती है जो कि पूर्वाग्रह के रूप में दबी हुई थी। जैसे फिल्म में दलित माओवादी होते ही हैं? अगर नहीं होते हैं तो बना दिए जाते हैं!

फिल्म में द्वंद्व है कि एक्टिविज्म और जर्नलिज्म में क्या फर्क है? क्या फर्क है आप बताओ?

निर्देशन कमाल का है। कहानी नए–नए आयामों को खोलने की कोशिश करती है। मध्यम वर्ग के नौजवानों के जीवन में आ रहे बदलावों को दर्शाने की कोशिश करती है। इस उमर में, इस दौर में एक दूजे को साथ की जरूरत है, तभी रिश्ता टिक पाएगा।

हरेक के पास अपना सच होता है, अपने नफे से उपजा सच जो कि अंतिम सच नहीं होता है। उस सच को मनवाने की भरपूर कोशिश की जाती है। साम दाम की नीति अपना कर। सत्ताधीश हिंसा करे तो बुराई का नाश और सत्ताविहीन करे तो बुरा। ये तो तोडा कुत्ता टोमी वाली बात हुई ना।

खैर! आप फिल्म देखिए

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गाँव का बाशिंदा, पेशे से पत्रकार, अथातो घुमक्कड़...