करीब 50 बरस पहले भीष्म साहनी ने ‘तमस’ नाम से एक उपन्यास लिखा था। यह हमारे समाज का दुर्भाग्य ही समझा जाएँ कि उपन्यास आज भी प्रासंगिक है। आधुनिकता के इस दौर में भी इस कृति का प्रासंगिक बने रहना, हमारे आधुनिक होने पर सवालिया निशान खड़े करता है।
आधुनिकता क्या है ? दस-बारह ठिकानों से फटी जीन्स पहनने से, टूटी-फूटी अंगरेजी बोल लेने से, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर नीला निशान हो जाने से, क्या कोई आदमी आधुनिक हो जाता है ?
आधुनिकता दरअसल विचारों का एक पुंज है। ऐसे विचार, जिनमें मानव सबसे प्रमुख है। इन विचारों को जीया जाता है। कई बार मध्यकाल का आदमी भी आधुनिक काल के जैसी बातें करता है; व्यवहार करता है। तो वहीं दूसरी ओर, कई लोग आधुनिक काल में भी पुराने ख़यालातों के साथ जीते हैं।
पुराने ख्यालों से मेरा तात्पर्य है इन्सान की जगह किसी और को प्राथमिकता देना; जैसे- धर्म को। आपने कई जगहों पर यह सुना होगा कि हिंदू और मुस्लिम एक साथ, एक देश में नहीं रह सकते हैं। जब इस तरह की सोच दिमाग में घर करने लगती है तब इंसान की क़ीमत घट जाती है; धर्म पहले आ जाता है। इसी सोच ने हिंदुस्तान के दो टुकड़े किये थे। आज वैसी ही सोच फिर से फन उठा रही है, तब तमस जैसे उपन्यास की प्रासंगिकता बढ़ जाती है।
किसी भी आदमी के दिमाग में ऐसे विचार कहाँ से आते हैं?
तमस उपन्यास में रिचर्ड नाम का एक अधिकारी है। जिसे ब्रिटिश हुकूमत ने नियुक्त किया है।काम क्या है उसका? भारत पर ब्रिटिश सत्ता को कायम रखना। यानी अंगरेजी हित सबसे पहले। इसीलिए वो चाहता है कि भारत के लोग आपस में उलझे रहें। अंगरेजी राज पर अँगुली न उठाएँ। भोली-भाली जनता को उलझाएँ रखने के लिए मज़हब एक बेहतरीन नशा है।
लोग रिचर्ड के बुने हुए जाल में फँस भी जाते हैं; और खून-खराबे तक उतर जाते हैं। जिसकी अंततः परिणति क्या होती है? वो आप सबको मालूम है। तमस उपन्यास में भीष्म साहनी ने विभाजन से पहले की राजनीति को दर्ज किया है; लोगों की मनःस्थिति को विस्तार से उकेरा है।
आज, आज़ाद भारत ने करीब 75 साल सफ़र तय कर लिया है। तब यह उम्मीद की जा सकती है कि विभाजनकारी सोच और राजनीति से दूरी बनाई होगी। आधुनिकता के रास्ते पर चलने की भरपूर कोशिश की होगी। पर ऐसा नहीं है। आज भी एक दूसरे के ऊपर आरोप–प्रत्यारोप का खेल चल रहा है। मज़हब की बुनियाद पर राष्ट्र बनाने की कसमें खाई जा रही हैं। कभी दिल्ली जलती है तो कभी गुजरात जलता है।
कौन करवाता है यह सब?
समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कहा था कि 'दंगा', इवेंट मैनेजमेंट का एक बेहतरीन उदहारण है। अब सवाल यह उठता है कि ये दंगे करवाता कौन है? तो तमस का जवाब है रिचर्ड जैसे सत्ताधारी लोग। जो बाँटकर राज करना चाहते हैं। आम जनता का ध्यान असली सवालों से हटाकर मंदिर-मस्जिद पर लगा देते हैं।
रिचर्ड जैसे स्वार्थी सत्ताधीशों का साथ देते हैं मुरादअली जैसे अवसरवादी लोग। मुराद जैसे कई और पाखंडी बहती गंगा में हाथ धोने आ जाते हैं। यह लोग खुद को मज़हब का असली ठेकेदार बताते हैं।हाँ, यह सही है कि इन कट्टरपंथियों का मज़हब से कोई वास्ता नहीं होता है। इनके अपने फायदे होते हैं।
मुस्लिम लीग को पाकिस्तान बनवाना है। और इसके लिए मुसलमानों को यह महसूस करवाना ज़रूरी था कि हिंदुस्तान आपका मुल्क नहीं है, कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है। इस मकसद को पूरा करने में मस्जिद के आगे फिंकवाया गया सुअर बड़ी मदद करता है। सुअर कौन काटता है? और कटवाने वाला कौन है? नत्थू, नत्थू चमार काटता है, और मुरादअली कटवाता है। फिर क्या, सारे मुसलमान यह समझने लगते हैं कि सुअर हिंदुओं ने फेंका है। और देखते ही देखते मार–काट शुरू हो जाती है। इंसान, इंसान के खून का प्यासा हो जाता है। भाई, भाई का दुश्मन हो जाता है। इस मारकाट में दोनों तरफ के ‘नत्थू’ मर जाते हैं।
क्या आज के दौर में मुराद अली जैसे लोगों की कोई कमी है? प्रवीण तोगड़िया, गुजरात में मुराद अली की भूमिका निभा रहे थे। कपिल मिश्रा, दिल्ली में मुराद अली की भूमिका निभा रहे थे। लेकिन रिचर्ड कौन था ? होगा कोई न कोई तो होगा।
क्या दंगों को रुकवाया नहीं जा सकता है?
‘तमस’ का रिचर्ड जानता है कि जनता के बीच अविश्वास बढ़ रहा है पर वो इन सब से आँख फेर लेता है। रिचर्ड से इस मुद्दे पर बात करने के लिए एक शिष्टमंडल आता है, उनसे गुजारिश करता है कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम कीजिए। रिचर्ड शहर को जलने देता है। चार दिनों तक शहर धू-धू करके जलता है। पाँचवें दिन सिर्फ एक बार शहर के ऊपर से हवाई जहाज घुमा देता है। सब शांत हो जाता है। बस इतनी से बात थी।
वर्ष 2020 में दिल्ली में दंगे हुए। मुख्यमंत्री टस से मस नहीं हुआ। पिछले कई दिनों तक मणिपुर जलता रहा, देश का रिचर्ड अमेरिका घूमकर आ गया पर मणिपुर नहीं गया।
विभाजन के कारणों को ढूंढते रह गए..
बंटवारे में मरा इंसान। हुकूमतों ने मज़हब के आधार पर लाशें गिनी। हिंदू लाश,मुस्लिम लाश(आज भी यही रीत है।)। फिर कारणों की पड़ताल शुरू की गई। इसी दौरान, बहस इस मुद्दे पर होने लगी कि शुरुआत किसने की? कुछ लोग बोले, हिंदू कुछ बोले मुसलमान।
लेकिन, इस मारकाट का नतीजा क्या निकला यह विचार किसी ने नहीं किया। मंटो जैसे लेखक चीखते रहे...सुनवाई नहीं हुई। आज भी प्रोपेगेंडा फ़िल्में टैक्स फ्री कर दी जाती हैं और तमस, गर्म हवा, पिंजर जैसी फ़िल्में हाशिए पर धकेल दी जाती हैं। क्यों? क्योंकि रिचर्ड को अपनी कुर्सी से मोहब्बत है।
अक्सर जो दिखता है वो होता नहीं है। तमस के लाला लक्ष्मीनारायण को देख लो। दिखते हैं पक्के कांग्रेसी पर हिंदू महासभा से भी विरक्ति नहीं है बल्कि अनुरक्ति है। उनका पंद्रह साल का बेटा रणवीर नफरती (युवा) सेना में काम करता है। लाला को मालूम है, या यूँ कहें उनकी सहमति ही है उसके साथ। सबके ठिए–ठिकाने जल जाते हैं पर लाला जी का बाल भी बांका नहीं होता है। क्योंकि मरना तो नत्थू जैसे लोगों को है। क्या आज के समाज में लाला जैसे लोगों की कोई कमी है?
नफ़रत की आग
इंसान पैदाइशी नफ़रती नहीं होता है। उसका परिवेश, उसका लालन–पालन उसे बताता है कि किससे कैसा व्यवहार करना है। तमस में 15 वर्ष के एक लड़के को मुसलमानों के प्रति विद्वेष से भरा जाता है। फिर उसे हिंसा करने के प्रशिक्षित किया जाता है। आज के हिंदुस्तान को देखिए। जहाँ कलम उठानी चाहिए वहाँ लाठियाँ उठवाई जा रही हैं। छोटे-छोटे लड़के सोशल मीडिया पर दुसरे धर्म के बारे में भद्दी टिप्पणियाँ कर रहे हैं। कुछ समय बाद ये इंसान नफ़रत से भर जाएँगे। खून के प्यासा हो जाएँगे। फिर, कुर्सी के लिए रिचर्ड जनता को आग में झोंक देगा।
तमस उपन्यास में रिचर्ड की पत्नी लीजा रिचर्ड से सवाल करती हैं कि आप यहाँ के लोगों को बचा क्यों नहीं रहे हो? रिचर्ड पलट कर जवाब देता है ‘मेरी निष्ठा महारानी के प्रति है, यहाँ के लोगों के प्रति नहीं। आज के सत्ताधीशों की निष्ठा किसके प्रति है? औपचारिक रूप से तो यह निष्ठा भारत के संविधान के प्रति है। भारत के संविधान की शपथ लेते हैं।
क्या संविधान मज़हब के आधार पर भेदभाव करने की छूट देता है? शायद नहीं! तो फिर लिंचिंग की घटनाओं पर एक भी शब्द क्यों नहीं फूटता। क्योंकि रिचर्ड चाहता है कि ऐसे नफरती लोग समाज में बने रहे। आज की हुकूमत, तमस की हुकूमत से भी ज्यादा खतरनाक है। यह आधुनिकता के दौर की हुकूमत है। आज़ाद भारत की हुकूमत। लेकिन, इसका व्यवहार आधुनिकता के किसी भी पैमाने पर फिट नहीं बैठता है।
एक महिला के साथ जुल्म करने वाले दरिंदों को बस इस आधार पर छोड़ दिया जाता है कि एक खास मज़हब से है।
आज का दौर और भी खतरनाक
तमस में बताया कि कैसे अफ़वाह फैलती है, और जब फैलती है तब सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है। पर अफसोस यह कि आज की हुकूमत भी वैसा ही रवैया अपना रही है। सोशल मीडिया के दौर में अफ़वाह फैलाना और भी आसान हो गया है। आपने 'अफ़वाह' फ़िल्म में देखा ही होगा कि कैसे लव जिहाद के झूठे आरोप दो अनजान इंसानों पर लगा दिए जाते हैं। अफ़वाहों के कारण आधुनिक, आज़ाद भारत में इंसानों की पीट–पीटकर हत्या कर दी जाती है। वो चाहे पालघर में हो, या चाहे राजस्थान के अलवर में।
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