क़िताब की बात:- भारतीय अर्थव्यवस्था पर संजय बारू की क़िताब

भारतीय अर्थव्यवस्था ‘एक उभरती हुई नहीं,‘एक फिर से उभरती’ हुई अर्थव्यवस्था है क्योंकि सोने की चिड़िया को ब्रिटिश हुकूमत ने ‘लूटा’ था.

किताब का नाम है – इयर्स ऑफ इंडियन इकोनामी [रीइमर्ज, रीइन्वेस्ट, री इंगेज] लेखक हैं संजय बारू. किताब को छापा है रूपा पब्लिकेशन ने. क़िताब की कीमत है मात्र 395 रुपए. हाल ही में भारत ने आजादी के बाद से 75 वर्ष का सफर पूरा किया है. ये क़िताब 75 वर्षों के सफर को आर्थिक नज़रिए से समेटने की कोशिश करती है. आज का लेख इसी किताब पर आधारित है.

इस किताब में कुल 15 अध्याय हैं. जिनमें मध्यकाल से होते हुए, ब्रिटिश काल में हुई अर्थव्यवस्था की दुर्गति को छूते हुए, वर्तमान में दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने तक का सफरनामा दर्ज किया है.

वैश्विक अर्थव्यवस्था में अलग अलग देशों का योगदान।

इतिहासकार एंगुस मेडिसन बताते हैं कि ब्रिटिश राज से पहले वैश्विक जीडीपी में भारत और चीन का योगदान 50% से अधिक था. भारत की ऐसी सुदृढ़ स्थिति में भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक अवस्थिति का भी योगदान था. सामुंद्रिक सीमाओं की उपलब्धता के कारण पश्चिम में लाल सागर, फारस की खाड़ी और अरब सागर सहित पूर्व में दक्षिण चीन सागर तक भारत के व्यापारियों का विश्व व्यापार में दबदबा था.

लेखक बारू, इतिहासकार केएम पन्नीकर का हवाला देकर बताते हैं कि केवल सामुंद्रिक मार्ग ही नहीं थल मार्ग से भी भारतीय व्यापारी व्यापार करते थे. (1000 CE के आस–पास वाले समय में) इस आर्थिक संपन्नता में व्यापारियों के साथ–साथ कृषि क्षेत्र का भी प्रमुख योगदान था. उस समय कृषि क्षेत्र अधिशेष की स्थिति में था.

लेखक यह भी बताते हैं कि राज्य की संपन्नता से इतर समाज में असमानता उस समय भी मौजूद थी. भारतीय समाज में जातिवाद और सामंतवाद के कारण कुछ लोग खूब मौज उड़ाते थे.

सन् 1700 AD के बाद अंधकार का दौर शुरू हो जाता है क्योंकि भारत को ब्रिटेन ने अपना उपनिवेश बना दिया था. जो भारत पहले अपने उत्पाद बेचने के लिए प्रसिद्ध था उसे कच्चे माल के निर्यातक और ब्रिटिश उत्पादों के बाजार में बदल दिया.

यह एक तरह की लूट थी, सुनियोजित लूट. लेखक विलियम डेलरिंपल बताते हैं कि अंग्रेजी डिक्शनरी में कोई पहला भारतीय शब्द जोड़ा गया था वह ‘लूट’ ही था.

इसी लूट को दादाभाई नौरोजी ने “ड्रेन ऑफ वेल्थ” थ्योरी में विस्तार से उल्लेखित किया था.

दूसरे अध्याय की शुरुआत भारत से हो रही धन निकासी से होती है. लेखक बारू, उत्सा और प्रभात पटनायक के रिसर्च का हवाला देते हैं. रिसर्च के अनुसार अगर ब्रिटिश भारत से हासिल किए धन को वर्ष 2020 में चुकाना चाहे तो वो राशि £13.39 ट्रिलियन होगी. (यानी यूके के 2020 की जीडीपी का चार गुना).

स्वतंत्रता सेनानियों को राष्ट्रीय आंदोलन के समय देश की आजादी को लब्ध करने के साथ-साथ आर्थिक ताने–बाने को भी बुनना था. गुलामी के साथ भारत के आर्थिक परिदृश्य में भी निर्जनता छाई हुई थी. क्योंकि जब दुनिया के अधिकतर हिस्सों में औद्योगिकीकरण की हवा बह रही थी तब भारत में वि–औद्योगिकीकरण की लहर चल रही थी. बिना औद्योगिकता वाले भारत में बचा–खुचा धन भी ब्रितानी हुकूमत कर उगाही के माध्यम से वसूल लेती थी. वसूला गया धन अपने ही व्यापार में निवेश कर देती थी.

निराशा के उस माहौल में प्रेरणा का ज्योतिपुंज जापान था. जापान, एशिया का छोटा–सा देश जिसने औद्योगिकीकरण का नया मॉडल प्रस्तुत किया था. जोकि यूरोपीय श्रेष्ठतावाद के ऊपर गहरा तमाचा था. रबीन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, जमशेदजी टाटा, एम. विश्वेश्वरैया सहित कई स्वतंत्रता सेनानियों के लिए जापान प्रेरणा स्रोत के रूप में काम कर रहा था.

जापान से प्रेरणा लेकर कई भारतीयों द्वारा उद्योगों की स्थापना की गई थी.

इसी तरह सन् 1917 में हुई सोवियत क्रांति ने भी स्वतंत्रता सेनानियों के चिंतन को प्रभावित किया था. कुल मिलकर आजादी की पूर्वसंध्या पर तमाम तरह की सोच-विचार वाले अर्थशास्त्री, सेनानी और इंजीनियर अपनी-अपनी बात रख रहें थे. या यूँ कहें कि आजादी की जंग के दौरान ही आजाद भारत में आर्थिक विकास की रणनीति तय की जा रही थी.

आर्थिक नियोजन

भारत एक ऐसा देश था जहां आजादी हासिल करने से पहले ही आर्थिक नियोजन पर चिंतन किया जा रहा था. किताब में आजादी से पहले और आजादी के बाद, आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में हुए घटनाक्रमों पर प्रकाश डाला है.

आजादी से पहले- सन् 1938 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस थे. बोस ने नेहरू की अध्यक्षता में राष्ट्रीय नियोजन आयोग का गठन किया था. इस आयोग के सदस्य अलग–अलग क्षेत्र से आते थे. इसी आयोग के एक सदस्य थे पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास जो आगे जाकर मुंबई प्लान के निर्माण में मुख्य स्तंभ बनते हैं.

दूसरे महायुद्ध के समय स्वतंत्रता सेनानियों को जेल में बंद कर दिया गया था इसके कारण नियोजन का काम धीमा हो गया था.

पुरुषोत्तम दास, सन् 1944 में देश के बड़े उद्योगपतियों को एक जगह इकट्ठा करते हैं और वहां “ए ब्रीफ मेमोरेंडम आउटलाइनिंग ए प्लेन ऑफ इकोनामिक डेवलपमेंट फॉर इंडिया” नाम से एक योजना बनाते हैं (जिसे हम बॉम्बे प्लान के नाम से जानते हैं). यह प्लान सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश की बात करता है. जैसे- शिक्षा और स्वास्थ्य. साथ ही, भारी उद्योगों में सरकार को निवेश के लिए प्रोत्साहित करता है.

लेखक बारू लिखते हैं कि समाजवादी नेता एमएन राय के द पीपुल्स प्लान और उद्योगपतियों बॉम्बे प्लान में फर्क राज्य की भूमिका को लेकर था. बॉम्बे प्लान के अनुसार एक दशक के बाद बाजार में राज्य का हस्तक्षेप न के बराबर होगा वहीं एमएन रॉय के समाजवादी प्लान में राज्य की भूमिका पर जोर अधिक था. इसी तरह बारू गांधीयन मॉडल का भी जिक्र करते हैं, जिसे सन् 1951 में गांधीवादी अर्थशास्त्री जे. सी. कुमारप्पा ने पेश किया था. इस विकल्प में विकास की शुरुआत गांव से होनी थी. हालाँकि, उस समय इस मॉडल को स्वीकार नहीं किया गया था.

आजादी के बाद आर्थिक नियोजन

लेखक ने बताया कि कैसे आजाद भारत के इस आर्थिक मॉडल ने पश्चिमी देशों के अर्थशास्त्रियों का ध्यान खीचा. एक ऐसा देश जहाँ लोकतंत्र की नींव रखी जा रही है वहीँ दूसरी ओर सोवियत रूस के नियोजन को भी अपनाया जा रहा है. बारू बताते हैं कि 1950 के दशक में मिश्रित अर्थव्यवस्था ने धूम मचाई हुई थी. सार्वजनिक क्षेत्र का बोलबाला था. हालाँकि, निजी क्षेत्र पूरी तरह से नदारद नहीं था.

संकट का दशक

लेखक 1960 के दशक को "संकट के दशक" की संज्ञा देते हैं. क्योंकि, भारत को दो लड़ाइयां झेलनी पड़ी थी. इसके कारण भुगतान संतुलन बिगड़ गया था, देश के अनाज भंडारों में कमी आ गई थी.

लेखक आगे पॉलिटिकल इकोनॉमी पर ध्यान खींचते हैं, बताते हैं कि कैसे कांग्रेस के अंदर चल रही गुटबाजी ने देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया. इंदिरा के काल में बैंकों, कोयला भंडारों जैसे उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण किया गया. जो कि सरकार के वाम धड़े की ओर झुकाव को दर्शाता है. इंदिरा सरकार की नीतियों के कारण महंगाई में बेतहाशा बढ़ोतरी हो जाती है. सरकारी खजाने में कमी आ जाती है, भुगतान संतुलन गड़बड़ा जाता है.

फिर अर्थव्यवस्था की गाड़ी दाहिने हाथ की ओर मुड़ जाती है. सरकार की भूमिका कम होने लगती है. निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाता है, लाल फीताशाही का सूर्य अस्त होने लगता है. इस बदलाव की परिणति वर्ष 1991 के सुधारों के रूप होती है.

1991 के सुधारों की बात

लेखक ने एक अन्य किताब में इन सुधारों को विस्तार से लिखा था. इस किताब में भी पाठक की जिज्ञासाओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं! उस समय के घटनाक्रमों का बारीकी से विश्लेषण करते हैं. इसी तरह किताब खेती–बाड़ी के संकट व सेवा क्षेत्र के संकट को संबोधित करती है. कृषि संकट में बताते हैं कि कर वसूलने के लिए अपनाई गई नीतियों का असर मौजूदा समय तक देखा जा रहा है. उत्तरी और पूर्वी भारत के सामाजिक और आर्थिक सूचकांक दक्षिण भारत की तुलना में कमतर हैं.

जियोनॉमिक का भी उल्लेख किया गया है कि कैसे अर्थव्यवस्था राष्ट्र की सुरक्षा को प्रभावित करती है. इसी के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के पहले से तीसरे सेक्टर में छलांग लगाने के कारण हुए नुकसान का भी विश्लेषण किया है.

आजाद भारत की आर्थिक यात्रा को बुनियादी रूप में समझने के लिए इस छोटी-सी क़िताब को पढ़ सकते हैं!

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