‘कबीर नारी कुंड नरक का...’ नारी के प्रति कबीर का नज़रिया

कबीर का व्यक्तित्व बहुआयामी था। यानी कि कबीर के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। उच्च कोटि की आध्यात्मिकता, निःस्वार्थता, निर्भयता और संकीर्ण मोह का तिरस्कार जैसे गुण कबीर को संत की श्रेणी में रखते हैं। कबीर का कवि रूप किसी का सानी नहीं है। इसी से प्रभावित हो कर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ‘वाणी के डिक्टेटर’ कहा था। काव्य–संवेदना में उनके समकक्ष कोई कवि नहीं ठहरता है। साहस का स्तर इतना ऊँचा है कि समाज में पसरी हर तरह की रूढ़ि को दुत्कारते हैं। उनकी यह ‘घरफूँक’ मस्ती इन्हें गांधी, आंबेडकर और बुद्ध जैसे समाज सुधारकों की श्रेणी में रखती है।

कबीर के प्रगतिशील नज़रिए के कारण ही प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में कबीर के समय को ‘देशज आधुनिकता’ का काल कहते हैं।

भक्त के रूप में कबीर अपने शिखर पर पहुँच जाते हैं– “मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै, मेरा साहिब है घर माहीं, बाहर नैना क्यों खोले”– विरह में तड़पने लग जाते हैं। गुरु के प्रति स्वयं को समर्पित कर देते हैं– “कबीर कुता राम का,मुतिया मेरा नाउं, गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊं।”

इसी बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण कई बार आलोचकों को कबीर की समीक्षा करते हुए इस प्रश्न से जूझना पड़ता है कि कबीर का मूल व्यक्तित्व क्या था ?

कोई कहता है कि “कबीर स्वभाव से संत, प्रकृति से उपदेशक और ठोक–पीट कर कवि हो गए हैं।” तो वहीं आचार्य द्विवेदी अपनी किताब ‘कबीर’ में लिखते हैं कि “कबीर का मूल व्यक्तित्व उनका भक्त रूप है, कवि तथा सुधारक रूप तो ‘घलुए’ मात्र हैं।” आगे चलकर डॉ. धर्मवीर अपनी किताब कबीर में दोनों ब्राह्मणों की आलोचना करते हैं और कबीर को समाज सुधारक बताते हैं। वहीं ‘अकथ कहानी प्रेम की’ किताब में प्रो. अग्रवाल कबीर को मूलरूप से कवि बताते हैं।

स्वधर्म क्या है ? इसकी विवेचना तो प्रबुद्ध लोग करेंगे, करते रहे हैं। पर गौर करने वाली बात यह है कि हिंदी साहित्य के कैनवास पर इतने रूपों को धारण करने वाले शख्स आपको विरले ही मिलेंगे। और कबीर उन में से एक हैं।

जाहिर है उनसे अपने युग की विसंगतियों से भिड़ंत की उम्मीद की जा सकती है, की जानी चाहिए। बिलकुल वैसी ही मुठभेड़ जैसी कि जातिवाद से कर रहे थे– 

“जो तूं बांभन–बंभनी का जाया,

आन बाट ह्वै क्यों नहीं आया।”

इन्हीं तेवरों से कबीर मुल्लों और पंडों की ख़बर लेते हैं–

“मूंड मुड़ाए हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय,

बार–बार के मूंडते, भेड़ न बैकुंठ जाय।”

“काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लइ बनाय,

ताँ चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।”

कबीर के इन्हीं तीखे तेवरों को देखकर आचार्य द्विवेदी ने कहा था कि “अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खाने वाला केवल धूल झाड़कर चल देने के सिवा कोई और रास्ता नहीं पाता।” 

कबीर का जन्म सामंतवादी युग में हुआ था। भोग और विलासिता का ज़माना था। सामाजिक नैतिकता के मामले में अवनति का काल था। नारी को भोग की वस्तु माना जाता था। ऐसे में हर तरह की संकीर्णताओं के पीछे खड़ाऊँ लेकर भागने वाले कबीर से नारी के परिपेक्ष में कुछ उम्मीदें पालना ज़्यादती तो नहीं होगी!

तो अब सवाल यह है कि क्या कबीर ने पितृसत्ता से भिड़ंत की ? जब निर्गुण और सगुण दोनों धाराओं के कवि नारी को नरक का द्वार बता रहे थे तब कबीर ने कौन-सा रास्ता अख़्तियार किया ?

कबीर की गाड़ी महिलाओं के संदर्भ में हिचकोले खाने लगती है। महिलाओं के मामले में कबीर के व्यंग्य बाणों का तेवर धीमा पड़ जाता है । और ऐसी बातें कर देते हैं जिन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है।

गौर कीजिए!

“कबीर नारी कुंड नरक का, बिरला थंभै बाग।

कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूवा लाग।।”

“नारि नचावै तीनि सुख, जा नर पासैं होई।

भगति मुक्ति निज ज्ञान मैं, पासैं न सकई कोई।।”

आप ही बताइएँ, तीन सुखों का नाश किया ?

यह कबीर कह रहे हैं। ‘कांमी नर कौ अंग’ शीर्षक से पूरा अंग लिखा है।

(पढ़ें श्यामसुंदर द्वारा संपादित और पुरुषोत्तम द्वारा परिमार्जित, कबीर ग्रंथावली, पेज संख्या–198, राजकमल प्रकाशन।)

इसी तरह कबीर नारी को त्याज्य घोषित करते हैं–

“नारी की झाईं पड़त, अंधा होत भुजंग।

कबिरा तिनकी कौन गति, जे नित नारी के संग।।”

बताओ कौन गति?

कबीर के लिए पति को सर्वेसर्वा मानने वाली एकनिष्ठ पत्नी सम्मान की हकदार बन जाती है और यही नारी जब सती होने जाती है तब कबीर उस आतंक के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नज़रिया अपनाते हैं और उसे प्रशंसा के भाव से देखते हैं–

“ढोल दमामा बाजिया, सबद सुणइ सब कोई।

जे साल देखि सती भजे, तौ दुहु कुल हाँसी होई।।”

(देखें, सूरा तन कौ अंग, श्यामसुंदर द्वारा संपादित और पुरुषोत्तम द्वारा परिमार्जित, कबीर ग्रंथावली, पेज संख्या–221, राजकमल प्रकाशन।)

ऐसे ही कई उदाहरण आपको मिल जाएँगे जिसमें नारी के प्रति कबीर का रवैया संकीर्णता से सींचा हुआ दिखता है।

अब इसके बचाव में कई तर्क दिये जाते हैं, जा रहे हैं। पहला तर्क तो यह कि साधु के चित्त से काम–वासना को दूर रखने के लिए नारी को नरक का द्वार बताया जाता है।

अच्छा! समस्या पुरुषों की है। उनके चित्त पर वासना हावी हो रही है तो इसमें महिलाओं की क्या गलती ? उसी भक्ति काल में महिलाओं ने भी साधना की थी। मीरा, अक्का महादेवी और लाल देद ने तो पुरुषों को नरक का द्वार नहीं बताया और नहीं ही पुरुषों को 'माया' माना। मीरा भी अपनी साधना में पुरुष को बाधक के तौर पर नहीं देखती है ‘विष का प्याला राणाजी भेज्या, पीवत मीरा हाँसी रे।’ 

हाँ, यह बात भी सही है कि नारी के बारे में संवेदनहीन बातें करने वाले कबीर राम के प्रति प्रेम और भक्ति व्यक्त करने के लिए नारी का रूप धरते हैं; और उसमें रम जाते हैं। जिसका विस्तार से उल्लेख प्रो. अग्रवाल ने ‘बालम आव हमारे गेह रे...’ : कबीर का नारी रूप और ‘काम मिलावे राम कूं...’ : शाश्वत स्त्रीत्व और कबीर की प्रेम धारणा नामक निबंधों में किया है।

बालम आव हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे॥
सब को कहै तुम्हारी नारी, मोकों इहै अंदेह रे
एकमेक ह्वै सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे॥
“काम मिलावे राम कूं जे कोई जांणै राखि।
कबीर बिचारा क्या करै, जे सुखदेव बोलै साखि॥”

कबीर का एक साधक के रूप में जो स्त्री–विमर्श है वो सामाजिक चिंता के स्तर पर वैसा ही रूप धारण नहीं कर पाता है। हमारे सामने कबीर का नारी–निंदक रूप भी है तो वहीं नारी रूप में बुनी काव्य संवेदना भी। कबीर की कई महानताएँ हैं। लेकिन वहीं कुछ कमियाँ भी। जिनसे संवाद किए बगैर कोरा महिमामंडन न तो कबीर के साथ न्याय है और ना ही हिंदी साहित्य के साथ। कबीर के एक पक्ष के आलोचना करना या उसकी ओर ध्यान खींचना कबीर के दूसरे पक्षों को कतई खारिज़ नहीं करता है।

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