फ़िल्म समीक्षा:- ज्विगाटो

एक जरूरी विमर्श की ओर समाज का ध्यान खींचने की कोशिश करती है फिल्म ज्विगाटो

पिछले काफी समय से दुनियाभर में बेरोजगारी का आलम छाया हुआ है। रोजगार की चाह में गंवई इलाकों के आम लोग शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं।शहरों के पास रोजगार देने की क्षमता सीमित है; ऐसे में प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है, मजदूरी और कम हो जाती है।श्रमिक, कम मजदूरी में काम करने के लिए तैयार हो जाता है। एक दिन महामारी दस्तक देती है। जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा मजदूर वर्ग भुगतता है। जिन शहरों को शिद्दत के साथ बनाया था; वे ही शहर मजदूरों को पराया कर देते हैं।

हजारों मजदूरों की रोजी–रोटी छीन गई। जैसे–तैसे दिन कटे। महामारी का अंधेरा छंटते ही मेहनतकश लोग रोजी की जुगत में लग गए।पेट पालने के लिए कम मेहनताने में नौकरी करने को राजी हो गए। गिग इकोनॉमी के क्षेत्र में काम करने वाले लाखों हिंदुस्तानी इसके उदाहरण हैं।

गिग इकोनॉमी– अर्थव्यवस्था का ऐसा भाग जहां नियोक्ता और कर्मचारी (या मजदूर) के बीच अल्पकाल का बंधन होता है। फूड डिलीवरी वाले, टैक्सी वाले..

मानस महतो, झारखंड के बाशिंदे हैं। दो जून की रोटी कमाने के लिए ओड़िशा के एक शहर में बस जाते हैं। महामारी के काल में उनकी नौकरी छूट जाती है।मानस को एक फूड डिलीवरी प्लेटफार्म पर नौकरी मिल जाती है। फ़िल्म, ऐसे तमाम मजदूरों के दुःख–दर्द को उकेरने की कोशिश करती है।

फ़िल्म समाज का वर्गीकरण दो भागों में करना चाहती है– अमीर और गरीब। अमीर वे लोग जिनके कुत्ते भी बड़ी–चौड़ी लिफ्ट में घूमते हैं और गरीब वे नागरिक जो समता के बिल्ले को जेब में डाल कर लिफ्ट की बजाए सीढियों से चढ़ते–उतरते हैं; क्योंकि लिफ्ट में पैर रखने से मनाही की गई है।

लेकिन, इस हिसाब से पटकथा कच्छी रह जाती है। राजा–रंक के इस फासले को तबियत से परदे पर उतारना चाहिए था। एक मौका आता है, जब मजदूरों का नेता भाषण देने आता है पर फ़िल्म उस मौके को नहीं भुना पाती है। अब प्रश्न उठता है कि क्या पटकथा कसी हुई नहीं थी? बिखराव का अभाव था। पूरी तरह से कसी हुई तो नहीं कह सकते हैं पर बोरियत की बात मुझे तो महसूस नहीं हुई। न तेजी थी न ही धीमापन था। 

अगर पटकथा में मानस के दुखों को और गहराई से उतारा जाता तो फ़िल्म कई दिनों तक दर्शकों के मन में बसी रहती।

फ़िल्म की शूटिंग के लिए ज़रूरी वातावरण नहीं था।जिंदगी के ताप को महसूस करवाने के लिए विश्वसनीय परिवेश तैयार किया जा सकता था। कई दफा इस मसले पर बेहतरीन काम दिखता है। पर बाकी समय में काले कंबल को रंगने की कोशिश की जा रही थी।

एकाध पात्र को छोड़ दे तो बाकी के सारे फ़िल्म के लिए ज़रूरी थे। अगर पटकथा किसी एक चरित्र के अंतर्मन को दिखाने की कोशिश करती तो दर्शकों को अधिक झंकझोरती।

अब आते हीरे पर. मेरा मतलब है अभिनेता पर– नायक पर। कपिल शर्मा नायक हैं। अदाकारी ठीक की है। थोड़ा और बेहतर किया जा सकता था। उसके लिए दर्द को महसूस करना था। आँखें बोलती तब मजा आता। भाषा पर काम सही नहीं हुआ। थोड़ा झारखंडी शैली का तड़का लग जाता तो आता आनंद। फिल्म की नायिका–शाहाना गोस्वामी ने किरदार के साथ न्याय करने की कोशिश की है, काफी हद तक सफलता हाथ लगी।

फ़िल्म का अंत गोलू टाइप से किया गया। ये भारतीय सिनेमा की समस्या है; सब चंगा हो जाता है। पर असल जीवन में होता नहीं है।

हर साल, सिने जगत के परदे पर सैंकड़ों फिल्में उतरती हैं। कोई अच्छी कमाई करती है तो किसी फिल्म के लिए सिनेमा हॉल खाली पड़े रहते हैं। ये समाज की पसंद–नापसंद को दर्शाता है; समाज के स्तर को रेखांकित करता है।

इस फिल्म को देखने वालों की संख्या कम है। इसका ये कतई मतलब नहीं है कि फिल्म खराब है। अगर आप सिनेमा में जाकर फ़िल्म देखने के शौकीन हैं तो ज़रूर देखें ताकि ऐसे मसलों पर फ़िल्में बनती रहे।

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ashok

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गाँव का बाशिंदा, पेशे से पत्रकार, अथातो घुमक्कड़...