आपने इस लेख को पढ़ना शुरू किया है। अपने हाथ में मोबाइल को थामे, आप धीरे–धीरे ध्यान को केंद्रित करने की कोशिश कर रहे हैं! विषयवस्तु पर आएं उससे पहले एक प्रश्न पूछना चाहता हूं! क्या लेख पढ़ते हुए आपके मन में रति भर भी डर है कि कोई पीछे से आकर, आपकी गर्दन पर लोहे की तीखी धार न रगड़ दे? शायद आपका जवाब होगा नहीं। बिना भय के इस लेख को पढ़ पाना ही समाज के होने का द्योतक है।
महान दार्शनिक थॉमस हॉब्स ने कहा था कि जब समाज नहीं था तब हर कोई, हर किसी का दुश्मन था।
समाज का गठन सामाजिक अनुबंधों ( सोशल कॉन्ट्रैक्ट) पर हुआ है। इन अनुबंधों के बूते ही समाज, इंसान का समाजीकरण करता है।
समाजीकरण क्या है?
माँ की कोख से जब बच्चा जन्म लेता है तब वो एसोशल होता है। यानी उसे समाज का भान नहीं होती है। धीरे–धीरे बच्चे को समाज नाम के साँचे में फ़िट किया जाता है। ये प्रक्रिया लंबी होती है, जन्म से लेकर मरण तक चलती रहती है। इस प्रक्रिया में समाज अपनी हदों को बार–बार स्पष्ट करता रहता है। स्पष्ट करने के साथ–साथ उसे मंजूर भी करवाता रहता है। इस प्रक्रिया को समाजशास्त्रियों की भाषा में समाजीकरण कहते हैं। किसी समाज में समाजीकरण जितना अधिक होगा उस समाज में विद्रोह की संभावना उतनी ही कम होगी।
ग्रामीण इलाके के कई युवाओं में प्रेम विवाह करने की चाहत होती है। इस तमन्ना के बावजूद लव मैरिज नहीं कर पाते हैं। ये किसी समाज के सदस्यों का उम्दा तरीके से हुए समाजीकरण को दर्शाता है। एक और उदाहरण फिल्मी दुनिया से; थाई मसाज फिल्म में एक बुजुर्ग आदमी वृद्धावस्था में सेक्स करना चाहता है। लेकिन, उनमें डर पसरा हुआ है, खुद में और परिवार में भी। ये डर भी समाजीकरण का ही एक और नमूना है।
समाजीकरण की शुरुआत परिवार से होती है। फिर, स्कूल की भूमिका आती है और बाद में समाज की। गौर करें उमर बढ़ने के साथ–साथ समाज का दायरा व्यापक होता जाता है। समाज के अर्थ में राजनैतिक समाज ( देस या राज्य) और आर्थिक समाज जैसी अवधारणाएं शामिल हो जाती हैं। समाजशास्त्र की भाषा में इसे ‘प्रासंगिक समाज’ कहते हैं।
समाजीकरण के असर को समझते हैं! किसी बच्चे के माता–पिता धर्म के प्रति कट्टर थे। फिर, जिस स्कूल में उसकी पढ़ाई हुई वो भी मदरसा या शिशु मंदिर जैसा था। इस दौरान विद्यार्थी का परिचय राजनैतिक समाज से होने लगता है। ये संभावना अधिक है कि शिशु मंदिर का विद्यार्थी एबीवीपी या आरएसएस जैसे संगठनों से जुड़ेगा। इसी बीच उसकी उम्र 20–22 बरस हो जाती है। अब वो अपनी धारणाओं और मान्यताओं से दूर जाने में संकोच करता है। मेरा भी एक ऐसा ही दोस्त था। जिसे मैं पढ़ने के लिए किताबें बतलाता था। एक दिन उसने अपनी शंका जाहिर की कि मुझे ऐसी कोई किताब मत देना जो मुझे आरएसएस के खिलाफ सोचने के लिए मजबूर करे।
समाजीकरण क्यों ज़रूरी है? और कितना ज़रूरी है?
लेख की शुरुआत में समाज के महत्त्व की ओर आपका ध्यान खींचा था। समाज की धारा अविरल बहती रहे इसके लिए ज़रूरी है समाजीकरण। हालांकि, असीमित समाजीकरण समाज में जड़ता लाता है। समाज में विद्रोह का भाव बना रहे। बनी बनाई दीवारों को तोड़ कर संकीर्णता को मिटाने का वैराग खिलता रहे।
जब समाजीकरण अपनी हदों को पार कर देता है तब शोषण के लिए रास्ता खुलता है।
समाजीकरण, एसोशल लोगों को नियंत्रित कर इंसान को सामाजिक रूप देने के लिए किया जाता था। वहीं असीम समाजीकरण शोषण को न्यौता देता है। शोषण, दो तरीकों से होता है। पहला, सीधा। और दूसरा कंडीशनिंग के तहत।
सीधे शोषण में शोषित वर्ग को ये भान रहता है कि उसका शोषण किया जा रहा है। समय आने पर शोषित वर्ग बदला लेता है। इसलिए शोषण की यह तरकीब ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाती है।
दूसरी तरकीब का नाम है कंडीशनिंग। जब शोषित को पता ही नहीं चलता है कि उसका शोषण किया जा रहा है। शोषित को यह महसूस करवाया जाता है कि ये उसके भले के लिए किया जा रहा है।
मैं अपने घर के दृष्टांत से समझाने की कोशिश करता हूं। मेरे बहन की उमर करीब 28 साल की है। गांव में ज्यादा पढ़ाई–लिखाई नहीं हुई, बाली उमर में ही विवाह करवा दिया, ससुराल भेज दिया। पति, शहर में काम करता है। वो उसके साथ चली गई। वहां नज़र शिक्षित हो गई। उसने मुझे बताया कि घर की मालकिन कहा जाता है पर मेरे पास कुछ भी नहीं है। घूंघट निकलना बुरा है। मेरी मां करीब 50 साल की है। वो घूंघट निकलती है, और कई तरह के जुल्म सहती है। पर सब खुशी–खुशी। क्यों? क्योंकि उनके साथ जो शोषण हो रहा है वो दूसरी श्रेणी का है और मेरी बहन को अपने शोषक का पता है।
खैर! अब हम समाज के अर्थ में राजनैतिक समाज को देखते हैं। राजनैतिक समाज में नियंत्रण (कंट्रोल) का महत्त्व बढ़ जाता है। सीधा नियंत्रण चीन जैसे देशों में संभव है, जहां कन्फ्यूशियस जैसे दर्शिनिकों ने सत्ता के सामने सवाल दागने की परंपरा को खत्म किया। सीधा नियंत्रण नहीं होने पर दो विकल्प बचते हैं पहला पुरस्कार और दूसरा दंड।
कुछ अपवादों को छोड़ दे तो सत्ता पुरस्कार दो तरह के लोगों को देती है। पहला, सत्ता की चापलूसी करने वालों को और दूसरा, सत्ता के विरोध में खड़े लोगों को प्रलोभन के तौर पर। चापलूसी करने वाले को इसलिए पुरस्कार दिया जाता है ताकि अन्य चापलूसों को पता लगे कि चापलूसी किस तरीके से करनी है।
अगर आपके संस्था में किसी शख्स को प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया है तो यह कतई मत सोचिए कि इससे काबिल कोई था ही नहीं। बस, आज जिसकी सत्ता है उसे ये पसंद है।
यानी जिस तरह की सरकार होगी उसी तरह के लोगों को पुरस्कार दिए जाएंगे, सांप्रदायिक सरकार में सांप्रदायिक लोगों को, सांप्रदायिक लेखकों को, सांप्रदायिक फिल्म निर्देशकों को।
अगर किसी किताब के अच्छे या बुरे होने का पता करना हो तो एक बार लिखने वाले और लिखवाने वालों को देख लीजिए। भारत का संविधान मध्यम वर्ग ने लिखा था इसलिए वैयक्तिकता के अधिकारों को प्रमुखता दी गई है जबकि नीति निदेशक तत्वों को राज्यों की मर्जी पर छोड़ दिया है।
पुरस्कार के प्रलोभन से जब विद्रोही नहीं डिगते हैं तब सत्ता अपना आखरी दाव चलती है, जिसका नाम है दंड। अपना नियंत्रण बरकरार रहे इसके लिए सत्ता ने अतीत से लेकर मौजूँ दौर तक दंड को लागू किया है। जिसके शिकार न्यूटन और गैलीलियो जैसे वैज्ञानिक और ब्रूनो व सुकरात जैसे दार्शनिक सहित कई अनगिनत लोग हुए हैं।
लसांथा विक्रमतुंगे, गौरी लंकेश, जमाल खशोगी जैसे कितने ही पत्रकार सत्ता की दंड नीति के भेंट चढ़ गए। सिद्दीकी कप्पन जैसे कितने ही और पत्रकार सत्ता की रडार में बैठे हुए हैं। आप अच्छे पत्रकार बन पाएंगे या नहीं यह सत्ता पर निर्भर करता है। अगर राजनैतिक समाज में प्रश्न पूछने को अच्छी निगाह से देखा जाता है या नहीं। अगर नहीं, तब आपको भी बटुए वाले प्रश्न पूछना पड़ेगा वरना सलाखों के अंधेरे कोनो में धकेल दिया जाएगा
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