सत्ता को चुनौती देने वाला 'जनकवि' : बाबा नागार्जुन

पंच तत्त्वों से बने इस देहधारी के पाँच नाम हैं। गाँव और बचपन में ठक्कन और वैद्यनाथ मिसिर, फिर वैदेह जिससे 1930 में पहली मैथिली कविता प्रकाशित हुई, फिर शायद घुमक्कड़ी के लिए चुना उपनाम यात्री और बौद्ध पंथ अपनाने के बाद अपनाया नाम नागार्जुन

इनकी रचनाओं के मूल में हाशिये पर बैठे शोषित लोगों का दर्द था। रचनाओं में बाबा, पाठक को कभी दलित की, कभी औरत की, तो कभी आदिवासी वर्ग की पैरवी करते हुए दिख जाएँगे। पैरवी के लिए तरह–तरह की सत्ताओं से प्रश्न पूछने होते हैं। बाबा नागार्जुन ने जमकर पूछे। वो भी बिना हकलाएँ। इसीलिए आलोचकों ने जनकवि की उपाधि दी। हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह ने भी कहा कि नागार्जुन ही सच्चे अर्थों में स्वाधीन भारत के प्रतिनिधि कवि हैं।

स्वयं नागार्जुन ने कहा कि “जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ? जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ”।

व्यंग्य करने के मामले में कबीर का कोई तोड़ नहीं है। उनके तीखे व्यंग्य से काशी के सारे मुल्ले-पण्डे परेशान हो गए थे। बाबा नागार्जुन ने उनकी परम्परा को आगे बढ़ाया। हाँ, ये ज़रूर है कि कबीर ने कभी राजनीतिक सत्ता से सीधी मुठभेड़ नहीं की। पर बाबा इस मामले में कबीर को पछाड़ देते हैं। कुर्सी को आज भी बाबा की कविताओं का खौफ सताता है।

जब सवाल किए तब यह नहीं देखा कि फलाना नेता कितना ताकतवर है; सबके नाम लिए - नेहरू, इंदिरा, मोरारजी, विनोबा। उन्हें किसी मैडल की चिंता नहीं थी। ना ही कोई सत्ता उन्हें झुका पाई। उन्हीं की भाषा में कहें तो "बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक"

“वतन बेचकर पंडित

नेहरू फूले नहीं समाते हैं

बेशर्मी की हद है फिर भी

बातें बड़ी बनाते हैं

अंग्रेज़ी, अमरीकी जोकों

की जमात में हैं शामिल

फिर भी बापू की समाधि

पर झुक-झुक फूल चढ़ाते हैं…” 

सन् 1961 में एलिजाबेथ द्वितीय भारत दौर पर आई थी; तब बाबा एक कविता पढ़ते हैं—

 आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी,

यही हुई है राय जवाहरलाल की

रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की

यही हुई है राय जवाहरलाल की

आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!

आओ शाही बैंड बजाएँ,

आओ बंदनवार सजाएँ,

ख़ुशियों में डूबे उतराएँ,

आओ तुमको सैर कराएँ—

उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की

आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!

बाबा की कविताएँ जम्हूरियत की पहरेदार थी। लोकतंत्र में नेतावर्ग सत्ता का मनमाफिक इस्तेमाल करने लगता है। तब साहित्यकार की कलम उससे टकराती है। और तीखे तेवरों के साथ पूछती है– "क्या हुआ आपको?

क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?"

नागार्जुन केवल किताबों और संगोष्ठियों तक सीमित नहीं रहे। वो फक्कड़ किस्म के आदमी थे। घुमक्कड़ी उन्हें खींचकर भारतभर में घुमाती रहती है। डॉ. नामवर सिंह ने एक दफा कहा भी था कि “इस बात में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि तुलसीदास के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की पहुंच किसानों के चौपालों से लेकर काव्य रसिकों की गोष्ठी तक है।” बाबा ने, घूम–घूमकर ऐसी कविताएँ सुनाई जिसमें सत्ताधीशों के नाम ले ले कर व्यंग्य किए गए थे। जिससे आमजन को हिम्मत मिली कि सत्ता से सवाल पूछे जा सकते हैं।

कई नेता अकाल, भूकंप या बाढ़ जैसी घटनाओं पर हवाई सर्वेक्षण करते हैं। एक बार बाबा के हत्थे चढ़ गए; बाबा ने लिखा-

"हरिजन गिरिजन भूखों मरते, हम डोलें वन-वन में,

तुम रेशम की साड़ी डाटे, उड़ती फिरो गगन में।"

नागार्जुन ने चुनावी राजनीती को आड़े हाथों लिया। कई नेतागण टिकट पाने के लिए पानी की तरह पैसे बहाते हैं और जब टिकट मिल जात है तब उनकी मनोदशा कैसी होती है?

"स्वेत-स्याम-रतनार' अँखिया निहार के

सिण्डकेटी प्रभुओं की पग-धूर झार के

लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के

खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के

आए दिन बहार के !"

चुनावी राजनीति की कड़वी सच्चाई वंशवाद है। बाबा बहुत पहले आसान भाषा में एक कविता के माध्यम से इस पर ध्यान खींच रहे थे—

ॐ तुल‌सीद‌ल, बिल्व‌प‌त्र, च‌न्द‌न, रोली, अक्ष‌त, गंगाज‌ल
ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून‌, म‌र्क‌ट का फोता
ॐ ह‌मेशा ह‌मेशा राज क‌रेगा मेरा पोता

गांधी जी का विश्वास था कि आजादी के बाद न्यासिता की धारणा का अनुसरण करते हुए संपत्ति का पुनर्वितरण किया जाएगा। लेकिन, गांधी के अनुयायियों ने ही इसकी अवहेलना की। बाबा ने अपने शब्दों में पिरोया—

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!

सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!

सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के!

ज्ञानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के!

जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के!

लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के!

सामाजिक सत्ता से सवाल—

तस्वीर में बाबा नागार्जुन और मैनेजर पाण्डेय.

बाबा नागार्जुन जन्म से ब्राह्मण थे। लेकिन, बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। समाज में फैली ऊँच–नीच के खिलाफ जमकर बोले। 1977 में हुए बेलछी काण्ड से क्षुब्ध हो गए थे। उनकी मन:स्थिति एक कविता में दर्ज हुई थी “रोता हूँ, लिखता हूँ, कवि को बेकाबू पाता हूँ.”

इस काण्ड पर नागार्जुन हरिजनगाथा नाम से कविता लिखते हैं। जिसमें दलितों के ऊपर ढहाए गए जुल्म को, दलितों को क्रांति करते हुए दिखाया है–

“ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं—

तेरह के तेरह अभागे—

अकिंचन मनुपुत्र

ज़िंदा झोंक दिए गए हों

प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में

साधन संपन्न ऊँची जातियों वाले

सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा!

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था...”

×××

“बढ़ आया बुद्धू अपने छ्प्पर की तरफ़

नाचते रहे लेकिन माथे के अंदर

गुरु महाराज के मुँह से निकले हुए

हथियारों के नाम और आकार-प्रकार

खुखरी, भाला, गंडासा, बम, तलवार...

तलवार, बम, गंडासा, भाला, खुखरी..”

बाबा नागार्जुन अपनी प्रसिद्द कविता ‘प्रतिबद्ध हूँ’ में लिखते हैं—

“प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ—

बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त।”

यह मालूम है कि बाबा की मृत्यु के करीब बीस बरस बाद उन पर यौन शोषण के आरोप लगे थे। नागार्जुन उसका जवाब देने के लिए दुनिया में नहीं थे। मैं, उस बहन की भावनाओं का सम्मान करता हूँ।

'रतिनाथ की चाची' नामक उपन्यास में आठ–दस साल के रतिनाथ की करुण कथा दर्ज की है। 'रतिनाथ की चाची' आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास है। जिसमें रतिनाथ स्वयं नागार्जुन हैं। उनके पिता, उनकी विधवा चाची के साथ संबंध बनाते हैं। जिससे उनकी चाची गर्भधारण कर देती हैं। उनके पिता के कारण उसकी हत्या हो जाती है। 

नारी चरित्रों पर बुनी गई उनकी कई कविताएँ नागार्जुन के स्त्री संबंधी विचारों को सामने रखती हैं; जैसे— ‘सिंदूर तिलकित भाल’, ‘वह दंतुरित मुस्कान’, ‘गुलाबी चूड़ियाँ’, ‘लाल साहू’ इत्यादि।

कोना क’ बिसरिअउ?

अधक्के देखल ओहि रातुक ओहि ठाँक

एक फाँक आँखि, एक फाँक नाक!

कोना क’ बिसरिअउ?

परम्परा से प्रश्न

बाबा, स्थूल के प्रति विद्रोह के प्रतीक थे। जब जातिवाद से दुःखी हुए तो धर्म छोड़ दिया। वैसे ही वो किसी देहरी में बंध कर नहीं रहे। दुनिया उन्हें प्रगतिशील काव्यधारा के मजबूत हस्ताक्षर के रूप में जानती है। लेकिन, उन्होंने विचाराधारा की लीक से हटकर लकीर खींची। बिलकुल वैसे ही जैसे कबीर ने खींची थी। कबीर कहते हैं —“गगना पवना दोनों बिनसैं, कहाँ गया जोग तुम्हारा।”बाबा लिखते हैं–“क्या है दक्षिण क्या है वाम,जनता को रोटी से काम। बाबा गेहूँ और गुलाब को एक दूसरे के बरकस खड़ा नहीं करते हैं। जिसकी मिसाल है यह कविता—

“अमल धवल गिरि के शिखरों पर,

बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे

उसके शीतल तुहिन कणों को

मानसरोवर के उन स्वर्णिम

कमलों पर गिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है। "

बाबा ने सन् 1952 में ‘अकाल और उसके बाद’ नाम से एक कविता रची जिसकी मार्क्सवादी चिंतकों ने ज्यादा वाहवाही नहीं की। क्योंकि, मार्क्सवादी छोटी–सी उपलब्धि पर खुश हो जाने को मिथ्या चेतना मानते हैं।

इस कविता में बाबा का भदेसपना निखर कर बाहर आता है। छायावाद ने प्रकृति को मानवीय रूप दिया था। लेकिन, कुरूप प्रकृति को वहाँ भी जगह नहीं मिली थी। बाबा, निराला की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। कानी कुतिया, नेवला, भुट्टा और कटहल सिर्फ बाबा की कविताओं में दिखते हैं। जैसा कि डॉ. नामवर सिंह ने कहा भी— यथार्थ के वे रूप जिन्हें शिष्ट व सुरुचिपूर्ण कवि विभत्स समझकर छोड़ देना ही उचित समझते हैं, नागार्जुन की साहसिक कल्पना से काव्य का रूप प्राप्त करते हैं– “प्रभु तुम कर दो वामन; होगा मेरी क्षुधा का शमन।” जैसी पंक्तियाँ लिखने का साहस नागार्जुन ही कर सकते थे।

धूप में पसरकर लेटी है

मोटी-तगड़ी,अधेड़,मादा सूअर…

जमना-किनारे

मखमली दूबों पर

पूस की गुनगुनी धूप में

पसरकर लेटी है

यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है

एक सजग कवि अपने समय की हकीकत को दर्ज करता है। रुढियों का विरोध करता है। हमारे ज़माने के कबीर ने यह काम तबियत से किया।

बाबा की स्मृति को नमन। सलाम।


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गाँव का बाशिंदा, पेशे से पत्रकार, अथातो घुमक्कड़...