हिंदी फ़िल्म : ऊंचाई

ऊंचाई, धरातल से नापी जाती है। यानी ऊंचाई के लिए धरातल का भान ज़रूरी है, बिना धरातल को जाने ऊंचाई का कोई अस्तित्व नहीं रहता। ऊंचाई केवल शब्द नहीं है, ये गहराई को धारण की हुई वो पोशाक है जिसे पहनने की चाहत सभी में है। एक पत्रकार जनता की आवाज बनकर, एक अभिनेता, उम्दा अभिनय कर अपने–अपने क्षेत्र की ऊंचाइयों को चूमना चाहते हैं।

ऊंचा उठाने की, ऊंचाई पर बैठने की कोशिश प्रत्येक जागरूक इंसान द्वारा की जाती है। पर, हर किसी के द्वारा हासिल की गई ऊंचाई को दुनिया याद नहीं रखती। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कोई शख्स, बेशक उस ऊंचाई तक तो नहीं पहुंच पाता है पर दुनिया वाहवाही करती है। एक राजा जीत के भी हार जाता है और एक, हार के भी जीत जाता है।

कबीर का एक दोहा है– "बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंथी को भी छाया नहीं फल लागे अति दूर", ऐसे ही ऊंचाई के मायने अलग–अलग रहते हैं। हाल ही में ऊंचाई नाम से एक हिंदी फ़िल्म आई है। ये फिल्म भी भौतिक ऊंचाई से लेकर हौसलों की ऊंचाई से होते हुए ऊंचाई के कई अर्थों को स्पष्ट करने की कोशिश करती है।

पीढ़ियों के बीच का फासला–

फिल्मों में कल्पना की उड़ान होती है। इसके बावजूद कथाकार अपने भीतर के सच को लोगों के सच से जोड़ देता है। मौजूं दौर में पीढ़ियों के बीच फासले बढ़ रहे हैं। एक साहित्यकार ने शेखर एक जीवनी जैसी नफीस कृति लिख इस दर्द को उकेरने की कोशिश की थी। ये फिल्म भी दर्शकों पर संवेदनाओं के बादलों को बरसने का मौका देती है।

ऊंचाई तो रिश्तों की मजबूती में होती है। आज जब बड़े–बुजुर्गों को अपनी ऊंचाई छूने के क्रम में वृद्धाश्रमों में भेजा जा रहा है, तब ये फिल्म उस ऊंचाई के खोखलेपन को नेपथ्य से बाहर लाती है।

फिल्म में चार बूढ़े हैं, अमिताभ बच्चन, अनुपम खेर, बोमन ईरानी और डैनी डेन्जोंगपा। चारों दोस्त हैं। दोस्ती का रिश्ता ऊंचाई गढ़ता है। बचपन बीत जाता है लेकिन बचपना बूढ़ों को जवान बना देता है। ये बचपना, दोस्ती की युवाओं तक सीमित देहरी को फांद देता है। बुढ़ापे में ऐसे रिश्तों की सबसे ज्यादा जरूरत रहती है।

प्रकृति हर जगह मेहरबान नहीं होती है। हिमालय की चोटियों पर बसना किसी–किसी शहर को ही नसीब होता है। लेकिन चोटी के बगैर भी कुछ शहर ऊंचे होते हैं। उनके कूचों में रौनक होती है। इन बिना ऊंचाई वाले ऊंचे शहरों में जाति और मजहब के आधार पर भेदभाव नहीं होता है। जैसे लखनऊ, राजा रजवाड़ों से लेकर विधानसभा की इमारतों को लिए खड़ा है। उसके चाहने वालों को अलग–अलग दौर की कहानी सुनाता है। ये नफ़ासत लखनऊ को ऊंचा बना देती है।

महिलाएं कितना दर्द झेलती हैं! पति और बच्चों के चक्कर में खुद को भूल जाती है। उनकी पसंद का खाना अपनी पसंद बना देती हैं। सबका शौक पूरा करवाते–करवाते अपने शौक बिसर जाती हैं। ऐसे ही दर्द को इस फिल्म में उभारने की कोशिश की है।

सबकी अदाकारी में ऊंचाई है। परिणीति चोपड़ा एक युवा गाइड की भूमिका बखूबी निभाती है।

फिल्म का ट्रेलर।

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गाँव का बाशिंदा, पेशे से पत्रकार, अथातो घुमक्कड़...