आज कसमें खाएंगे, लंबे–लंबे वादे करेंगे, चौक–चौराहों पर लगी शिलाओं पर फूल फेकेंगे। मीडिया के सामने झूठी भावुकता से भरे बयान देंगे; और मीडिया उन भाषणों के ऊपर चर्चा–परिचर्चा करके जम्हूरियत के जिंदा होने की बानगी पेश करेगा। जनता को लगेगा कि अब चंद ही लम्हों में ये नेता आंबेडकर के सपनों का हिंदुस्तान बना देंगे! जैसे ही आंबेडकर जयंती का दिन ढलता है, रात चढ़ती है, सारा जोश नेपथ्य में चला जाता है। दूसरे ही दिन, जन–सेवकों की टोली सावरकर के सपने का हिंदुस्तान बनाने की सौगंध खाकर खुद को हिंदू हृदय सम्राट के तौर पर पेश करती है।
ऐसे में ये जानना जरूरी हो जाता है कि आंबेडकर के सपनों का हिंदुस्तान कैसा है?
राष्ट्र / राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद
मौजूदा राष्ट्र–राज्य (नेशन स्टेट) की अवधारणा पश्चिम की देन है। राजा के ‘राज्य की प्रजा’, ‘राष्ट्र के नागरिक’ में बदल गई। राष्ट्र के मामले में, देश के भीतर रहने वाले लोगों के बीच एक होने का भाव रहता है। और ये कॉमन फीलिंग कई आधारों पर आ सकता है, जैसे– भाषा, धर्म, नस्ल इत्यादि के आधार पर।
गौरतलब है कि आजादी से पूर्व सावरकर का कहना था कि एकता का भाव संस्कृति के आधार पर आएगा। और जिन्ना जैसे नेताओं का कहना था कि एकता का भाव समान धर्म के आधार पर आएगा। लेकिन आम्बेडकर इस विचार से सहमत नहीं थे ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ नामक किताब में आंबेडकर लिखते हैं कि
“A nation is not a country in the physical sense, whatever degree of geographical unity it may possess. A nation is not a people synthesized by a common culture derived from a common language, common religion or common race”
यानी राष्ट्र कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है,न ही समान भाषा बोलने वालों, समान संस्कृति को जीने वालों, समान मज़हब को अपनाने वालों, समान नस्लीय पहचान को धारण करने वालों का निवास स्थान नहीं है।आगे लिखते हैं— राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद में अंतर है। अगर कोई राष्ट्र है तो जरूरी नहीं वहां राष्ट्रवाद भी हो। राष्ट्रवाद के लिए बंधुत्व (Fraternity) का भाव जरूरी है।
Nationality means ‘consciousness of kind’ and ‘awareness of the existence of ties of kinship’. Nationality is a social feeling of a corporate sentiment of oneness.
बंधुत्व क्यों ज़रूरी ?
पश्चिमी देशों ने राष्ट्र की स्थापना के साथ प्रजातांत्रिक मूल्यों को अपनाया, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की तिकड़ी प्रमुख है। भारत की संविधान सभा ने भी उसे अपने संविधान में शामिल किया। लेकिन बाबा साहेब का कहना था कि ये सिर्फ शब्दों की जोड़ी बनकर न रह जाए।
25 दिसंबर, 1949 को डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में एक भाषण दिया— बिना बंधुत्व के स्वतंत्रता और समानता का क्या महत्त्व? पुलिस की लाठी के बूते न ही समानता स्थापित की जा सकती है और न ही स्वतंत्रता। जब तक राष्ट्र के नागरिकों में ‘बिरादरी’ का भाव नहीं आएगा तब तक न तो ‘राष्ट्रवाद’ आएगा और न ही स्वतंत्रता और समानता।
These principles of liberty, equality and fraternity aren't to be treated as separate items in trinity.
They form a union of trinity in the sense that to divorce one from the other is to defeat the very purpose of democracy....What does fraternity means? Fraternity means a sense of brotherhood of all Indians–if Indians being one people...
भारतीय समाज में जाति है कि जाती ही नहीं। जाति, नागरिकों को कुछ समूहों तक सीमित कर देती है। ऐसे में जाति के रहते बंधुत्व का भाव कभी नहीं आ पाएगा। जिसका अंतिम परिणाम, एक ऐसे राष्ट्र का गठन जहाँ राष्ट्रवाद का अभाव है।
लोकतंत्र की स्थापना
आंबेडकर, शासन की लोकतांत्रिक पद्धति में विश्वास करते थे। लोकतंत्र, लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में बदलाव का एक जरिया था। लेकिन केवल शासन व्यवस्था के इस तरीके को अपनाने से लोगों का कल्याण जाएगा? जीवन में बदलाव आ जाएगा? उसके लिए जरूरी है– एक मत का एक मूल्य (वन वोट वन वैल्यू)।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखा गया है कि भारत एक संप्रभु और गणतांत्रिक देश है। यानी इस देश में जनता ही सर्वेसर्वा है। इसी बात को मानते हुए भारत में सार्वत्रिक वयस्क मताधिकार को अपनाया।
लेकिन क्या मत देने के अधिकार से लोकतंत्र स्थापित हो जाएगा? क्या हर वोट की कीमत बराबर है? आपने राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों को देखा होगा! अलग–अलग वर्ग को कैसे–कैसे मुद्दों पर लुभाया जाता है? कोई आदमी 5 किलो अनाज की एवज में अपना वोट दे देता है और कोई शख्स 5% की छूट पर।
एक मत का एक मूल्य स्थापित करने के लिए समाज में मौजूद असमानताओं को तोड़ना होगा। असमानताओं के कई प्रकार हैं, जिसमें पहली है सामाजिक असमानता। जिसे आपने जाति व्यवस्था के रूप में देखते होंगे।
सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए जाति व्यवस्था का समूल नाश करना होगा। डॉ. आंबेडकर को जात–पात तोड़क मंडल ने जाति व्यवस्था पर बोलने के लिए बुलाया था। आखरी समय में वहां उनका भाषण रोक दिया गया। वो भाषण ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ। लिखते हैं कि आर्थिक और राजनीतिक दोनों तरह के सुधारों के लिए जाति का विनाश जरूरी है। साथ ही, जाति व्यवस्था की जड़ें हिंदू धर्म के शास्त्रों से जुड़ी हुई हैं। इसलिए इन शास्त्रों को अस्वीकार करना होगा। अब आप ही बताइए मौजूदा दौर में एक तरफ हिंदू राष्ट्र का सपना और दूसरी तरफ ये विचार...
आंबेडकर के विचारों में सामाजिक आजादी, राजनीतिक आजादी को बनाए रखने के लिए जरूरी है।ये सच भी है। आप ही बताइए, कितने मुख्यमंत्री दलित वर्ग से हैं? कितने अरबपति ? कितने....
दूसरी असमानता— आर्थिक असमानता
बाबा साहेब का कहना था कि अगर किसी देश में आर्थिक सुधार नहीं होगा राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं होगी। सरकारें धन्ना सेठों की कठपुतलियां बन जाएंगी।
Having regard to the fact that even under adult suffrage all legislators and government are controlled by the more powerful, an appeal to the legislature to intervene in economic spheres is a very precarious safeguard against invasion on liberty of the less powerful.
आर्थिक समानता को खत्म करने के लिए आंबेडकर अन्य तरीकों (जैसे हिंसक क्रांति) से असहमत थे। आंबेडकर लोकतांत्रिक पद्धति को बेहतर मानते थे। पर उनका कहना था कि राजनीतिक लोकतंत्र (पॉलिटिकल डेमोक्रेसी) को मजबूत करने वाले आर्थिक मॉडल को संविधान में जगह दी जाए।
आर्थिक मॉडल के रूप में आंबेडकर समाजवादी पद्धति को संविधान का हिस्सा बनाने की मांग कर रहे थे। उद्योगों और जमीन के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहे थे। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को राज्य की जिम्मेदारी बता रहे थे।
13 दिसंबर, 1946 को नेहरू की ओर से उद्देशिका पेश की गई थी। आंबेडकर ने इसमें समाजवादी मॉडल के समावेशन की बात कही। ऐसे ही सन् 1947 में ‘स्टेट एंड माइनोरिटीज’ नाम से एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें आर्थिक केंद्रीकरण से पैदा होने वाले खतरों की ओर इशारा किया था।
आंबेडकर की इस मांग को मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं किया (क्योंकि उस समय संविधान सभा में मध्य वर्ग की बहुलता थी)। लेकिन नीति निदेशक तत्त्वों में राज्यों को ये जिम्मेदारी दी गई। आज सरकारी कंपनियों का निजीकरण किया जा रहा है, निजीकरण से आरक्षण का क्या होगा? समाजवाद शब्द (जो कि बाद में जोड़ा था) को हटाने के लिए प्रस्ताव लाए जा रहे हैं...बाबा साहेब के सपनों का हिंदुस्तान बनाया जा रहा है?
An economy based on private enterprise and in pursuit of personal gain would compel people to relinquish their fundamental constitutional right in order to sustain their livelihoods, as such a system would delegate power to private non-state persons to govern others.
तीसरी असमानता— बहुमत की तानाशाही
याद करिए 25 नवम्बर,1949 को दिया गया डॉक्टर आंबेडकर का भाषण। जिसमें वो बताते हैं कि संविधान को लागू करने वाले पर निर्भर करता है कि संविधान अच्छा है या बुरा। संविधान में पंथनिरपेक्षता को शामिल किया ताकि धर्म के आधार पर किसी को भेदभाव नहीं झेलना पड़े। आज हिंदू राष्ट्र की पैरवी करने वाले बाबा साहेब को क्या जवाब देंगे? क्या बहुमत की तानाशाही लोकतंत्र को गहरा करेंगी? आज पंथनिरपेक्षता के मूल्य पर हमला किया जा रहा है (सत्ता के द्वारा, सत्ता के संरक्षण में)। ये हमला आंबेडकर के सपनों पर तुषारापात करता है।
परिवार में लोकतंत्र
बाबा साहेब ने समान नागरिक संहिता को लागू करवाने की भरपूर कोशिश की पर नाकामयाब रहे।संविधान सभा ने इस विषय को राज्यों की मर्जी पर छोड़ दिया। लेकिन, हिंदू कोड बिल पारित करवाने में उनका योगदान अहम था( नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा भी इसी मुद्दे पर दिया था)।
आंबेडकर को दलितों तक सीमित करना असल में नाइंसाफी है। आधी आबादी के अधिकारों के बिना आंबेडकर के सपनों का राष्ट्र बन ही नहीं सकता।
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