पिछले कुछ समय से ‘राष्ट्र के स्वरूप’ को लेकर हिंदुस्तान की फ़िज़ा में बदलाव आ रहा है। चौक–चौराहों पर, चाय के ठेलों पर, गांव के चबूतरों पर, शहर की अंधेरी गलियों में, मीडिया के वाद–विवादों में, बाबाओं के प्रवचनों में राष्ट्र के स्वरूप को फिर से परिभाषित किया जा रहा है।
हिंदुस्तान का एक तबका भारत को धर्म विशेष का राष्ट्र बनाना चाहता है। मौजूदा दौर में इनकी चाहत जोरों–शोरों से जाहिर हो रही है। ऊहापोह की इस दशा में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता याद आती है कि
गोली खाकर
एक के मुँह से निकला -
'राम'।
दूसरे के मुँह से निकला-
'माओ'।
लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
'आलू'।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।
सवाल ये है कि क्या आलू की मांग करने वाली जमात अब नहीं बची? क्या सबके पेट लबालब भरे हुए हैं? खैर!आज के लेख में हिंदू राष्ट्र के विमर्श से उपजे कुछ सवालों का जवाब है! पहले राष्ट्र की अवधारणा कोे संक्षिप्त में समझने का प्रयास करते हैं!
'राष्ट्र' की अवधारणा
19 वीं सदी में फ्रांस की क्रांति हुई थी। जिसकी संतान के रूप में राष्ट्र की अवधारणा सामने आई। फ्रांस के नागरिकों ने ऊंच–नीच की बिसात पर बसे राजा के राज्य को अतीत के झरोखे तक समेट दिया। राजा के राज्य की जगह ‘राष्ट्र’ ने ले ली, प्रजा की जगह नागरिकों ने। अब व्यवहारिक तौर पर न सही सैद्धांतिक रूप में सब एक समान थे।राष्ट्र क्या है?एक भौगोलिक प्रदेश में रहने वाले लोगों के बीच अगर जुड़ाव का भाव आए तो वो राष्ट्र है। जुड़ाव का भाव कैसे आता है?
ये भाव समान भाषा, समान धर्म, समान नृजातीयता और समान इतिहास के आधार पर आता था। लेकिन, भारत में विविधता की बहुलता थी। इसी को ध्यान में रखकर कई गोरे लोग भारत को एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे थे।
“हालांकि बाहरी रूप में लोगों में विविधता और अनगिनत विभिन्नताएं थीं लेकिन, हर जगह एकात्मकता की जबर्दस्त छाप थी जिसने हमें युगों तक साथ जोड़े रखा, चाहे हमें जो भी राजनीतिक भविष्य या दुर्भाग्य झेलना पड़ा हो"। ये पंडित नेहरू ने अपनी किताब “डिस्कवरी ऑफ इंडिया” में लिखा था। उसी विविधता में एकता के सूत्र वाक्य को ध्यान में रखते हुए भारत ने राष्ट्र के नए विकल्प को खड़ा कर दिया। ये अंगरेज अफसरों के मुंह पर करारा तमाचा था।
हालांकि, लेखक मनन अहमद अपनी किताब द लॉस ऑफ हिंदुस्तान में लिखते हैं कि भारत के उदय होने से हिंदुस्तान का विचार नेपथ्य में चला गया। हिंदुस्तान का मतलब हिंदू राष्ट्र नहीं है, हिंदुस्तान का मतलब है गांगी–जमुनी तहजीब।
बहरहाल भारत ने राष्ट्र निर्माण का नया नमूना पेश किया, जिसे लेखक सुनील खिलनानी तीसरी क्रांति की संज्ञा भी देते हैं। भारत राष्ट्र में एकता का भाव किसी धर्म, जाति, नस्ल जैसे कारक पर नहीं टिका था। भारत के राष्ट्र की नींव थी जनता। चाहे कोई भी इंसान, किसी भी मजहब का हो, किसी भी जाति का हो, किसी भी नस्ल का हो, भारत में उसकी हर विविधता को स्वीकार किया, मौलिक अधिकार के रूप में उसको संरक्षण दिया। तभी, जनता के भीतर विविधता के बावजूद एकता पनपी।
जब भारत में, राष्ट्र-निर्माण के लिए जनता के राष्ट्र (सिटीजन्स नेशन) को मान्यता दी जा रही थी तभी कुछ लोग उस पर आपत्ति जता रहे थे। वे लोग भारत का गठन भी धर्म के आधार पर करना चाहते थे (जैसे दुनिया के कई देशों का हुआ था)। यानी राष्ट्र में जुड़ाव के लिए धर्म को आधार बनाना चाहते थे। आज उसी परिपाठी को आगे बढ़ा रहे हैं ये हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले। सार रूप में कहें तो धर्म के आधार पर राष्ट्र के गठन की बात नई नहीं है। हाँ, ये सही है कि इतिहास में इसकी मांग दबी आवाज में हो रही थी और अब खुलकर।
राष्ट्रवाद:- राष्ट्र के प्रति लगाव
काल्पनिक समुदाय (राष्ट्र) जिन सामूहिक विश्वास, सामूहिक आकांक्षाओं, सामूहिक इतिहास, सामूहिक रीति-रिवाजों या सामूहिक परम्पराओं के जरिए जुड़ा रहता है, उन्हें अभिव्यक्त करना ही राष्ट्रवाद है। भारत के सन्दर्भ में देखें तो राष्ट्रवाद, तिरंगे का सम्मान करने में, अशोक के साथ अकबर का भी सम्मान करने में, गंगी- जमुनी तहजीब का सम्मान करने में... है। वहीं अगर कल को भारत हिन्दू राष्ट्र बन गया तो गाय की रक्षा के लिए किसी की हत्या करना राष्ट्रवाद माना जाएगा!
आज़ादी की लड़ाई के दौरान रवींद्रनाथ टैगोर संकीर्ण राष्ट्रवाद की ओर ध्यान खींच रहे थे, जो देशभक्ति के नाम पर मानवता को खारिज कर रहा था। आज वो ही लोग भौकाल मचा रहे हैं। उन्होंने मानवता को बहुत पीछे धकेल दिया है।
सेनानियों के सपनों का राष्ट्र
बापू के सपनों का भारत-
सन् 1909 में गाँधी दक्षिण अफ्रीका से लन्दन जाते हैं, जहाँ पर उनकी मुलाकात कुछ क्रन्तिमार्गी अराजकतावादियों से हो जाती है। जिसमें दामोदर विनायक सावरकर, टी.एस.एस. राजन, वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय, वी.वी.एस. अय्यर और डॉ. प्राणजीवन मेहता प्रमुख थे। इनसे हुई बातचीत के विमर्श पर गाँधी ने काल्पनिक सवाल बनाए, फिर उनका जवाब दिया।
हिंद स्वराज का तीसरा अध्याय हिंदू और मुसलमान के संबंधों पर है। उनकी कुछ पंक्तियां उद्धरित कर रहा हूं– अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक नीरा सपना है मुसलमान अगर ऐसा माने कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहे तो उसे भी सपना ही समझिए।... दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है; हिंदुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं।
इसी में, गांधी गोरक्षा के बारे में लिखते हैं। गांधी कहते हैं कि मैं गाय को पूजता हूं वैसे ही जैसे मैं मनुष्य को पूजता हूं। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी। फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू। तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ लूंगा? क्या उसे मैं मारूंगा? ऐसा करने से मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनूंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक ही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश के खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए अगर वह ना समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए। क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं। अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती है तो अपनी जान दे देना चाहिए लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए वही धार्मिक कानून है, ऐसा मैं मानता हूं। इस किताब का तीसरा पाठ ज़रूर पढ़ना। यहां क्लिक कीजिए!
गाँधी के मत को समझने के लिए बने–बनाएं साचों से ऊपर उठकर सोचना होगा। संकुचित नज़रिया गांधी के साथ न्याय नहीं कर पाएगा।
सावरकर का आइडिया ऑफ़ इंडिया
कालापानी की सजा भुगत कर सावरकर रत्नगिरि की जेल में आ जाते हैं। यहीं पर हिंदुत्व नामक किताब लिखते हैं। किताब में लिखे गए विचार, लंदन में रह रहे सावरकर से उलट थे। लंदन में रहते समय सावरकर हिंदू–मुस्लिम एकता की बात करते थे।
हिंदुत्व किताब में सावरकर, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ( कल्चरल नेशनलिज्म ) के आधार पर हिंदुस्तान के गठन की बात करते हैं। क्या होता है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद?
लेख के शुरुआत में जिक्र किया कि राष्ट्रवाद, एक देश में रहने वाले लोगों के बीच जुड़ाव का भाव है। शासक वर्ग, राष्ट्र की परिस्थितियों के आधार पर जुड़ाव पैदा करने वाले भावों का चुनाव करता है। अगर शासक वर्ग ने जुड़ाव पैदा करने वाले भाव को देश की परिस्थितियों के अनुकूल चुना है तो राष्ट्र में स्थिरता रहेगी, राष्ट्र लंबा चलेगा। जैसे अगर किसी प्रदेश में एक भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं, तो शासक वर्ग कह देगा कि फलानी भाषा बोलने वाले लोग हमारे राष्ट्र के हैं।
अगर शासक अपने अल्पकाल के फायदे के लिए ऐसे जुड़ाव के आधार का चुनाव करता है जो कि देश के परिस्थितियों से विपरीत है, तो राष्ट्र में अस्थिरता आएगी। जर्मनी के उदाहरण से समझते हैं। हिटलर नाम का शासक था, लोकतंत्र के रास्ते से तानाशाही स्थापित करने वाला। जर्मनी में कई नस्ल के लोग रहते थे, नस्ल के आधार पर अच्छी–खासी विविधता थी। पर हिटलर ने इस विविधता को अस्वीकार कर दिया, जर्मनी को आर्य नस्ल के लोगों का देश घोषित किया। यानी जुड़ाव लाने के लिए नस्ल का सहारा लिया (एथनिक नेशनलिज्म)। आर्य लोग उसे बड़ा राष्ट्रवादी मानने लगते हैं। क्योंकि, हिटलर गैर आर्य नस्ली, यहूदियों का नरसंहार कर रहा था। पर ये टिका नहीं। हिटलर ने आत्महत्या कर ली। जर्मनी को बनने में फिर से मेहनत करनी पड़ती है। हिटलर के कारनामों के कारण आज जर्मनी के लोग और दुनिया के बाकी लोग हिटलर को हेय नजर से देखते हैं।
सावरकर कहते हैं कि हिंदुत्व को मानने वाले लोग हिंदुस्तानी हैं। हिंदुत्व एक संस्कृति है जिसे सिंधु के पूर्व रहने वाले लोग जीते हैं। हां, सिंधु के पूर्व रहने वालों में भी सावरकर विभाजन करते हैं, बताते हैं कि जिनकी पितृ भूमि और पुण्य भूमि सिंधु से पूर्व यानी हिंदुस्तान में है वे ही लोग सावरकर के हिंदुस्तान में रहने के हकदार हैं। या यूं कहें हिंदुत्व संस्कृति को जीने वाले।
इस राष्ट्रवाद से क्या दिक्कत है?
देश की 25 फीसदी आबादी इस राष्ट्रवाद के दायरे में नहीं आएगी। उनका क्या होगा? बताते हैं कि हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू संस्कृति के हैं। उन्होंने दूसरे धर्म बाद में अपनाएं हैं। अगर एक दफा ये मान भी लें तो क्या ये 25% आबादी आराम से ये मान जाएगी? इस तरह के राष्ट्रवाद से इनमें भय पैदा नहीं होगा? सावरकर का राष्ट्रवाद, बहुलता से टकराएगा और देश के भीतर अशांति उपजेगी।
गौर कीजिए ये सिद्धांत जनता के राष्ट्रवाद (सिविक नेशनलिज्म) की तुलना में अलग है।
कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन किया था?
गृहमंत्री अमित शाह नागरिकता बिल पेश करते समय भाषण देते हैं, बताते हैं कि कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन किया था इसीलिए आज इस बिल की जरूरत पड़ी। आप आज़ादी से पहले के दौर को याद कीजिए! कांग्रेस नेता गांधी, हिंदू –मुस्लिम एकता के लिए 24 दिन का उपवास करते हैं, सरदार पटेल समेत तमाम नेता हिंदू–मुस्लिम एकता के लिए जी जान लगा देते हैं। महात्मा गांधी की चाहत थी कि एक बार शांति हो जाए तो पाकिस्तान गए मुस्लिम फिर से भारत आ सकते हैं। सरदार पटेल हिंदू राष्ट्र के विचार को पागलपन कहते हैं। फिर ये कांग्रेसी विभाजन को कैसे संभव बनाते हैं? इस विभाजन की परिस्थितियां किसने तैयार की थी।
पत्रकार धीरेंद्र झा अपनी किताब में लिखते हैं कि सावरकर और हिंदू महासभा ने हिंदुत्व के राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया। जिसमें मुसलमान और ईसाई शामिल नहीं थे। वहीं जिन्ना की करतूतों को याद करिए! जिन्ना दिन–रात ये साबित करने में लगे हुए थे कि मुसलमानों के लिए भारत में कोई जगह नहीं है, उनके लिए एक अलग राष्ट्र चाहिए। क्या इन दोनों नेताओं की बातें एक–दूसरे को मजबूती नहीं दे रही थी?
वहीं गांधी फ़िल्म के उस दृश्य को याद कीजिए! आजादी की पूर्व संध्या का समय है, गांधी नोआखली की दंगों से लिपटी हिंसा भरी दुनिया में थे। गांधी के अपने लोग हिंसा पर उतारू थे! इस हिंसा पर लगाम कसने के लिए अपना आखरी दांव चलते हैं, आमरण अनशन की शुरुआत कर देते हैं। एक हिंदू शख्स गांधी के पास आता है, आ कर बताता है कि उसने एक मुसलमान के बच्चे का सिर दीवार पर दे मारा ! गांधी पूछते हैं क्यों? वो बताता है कि मुसलमानों ने उसके छोटे बच्चे को काट दिया था। गांधी बोलते हैं, इस दुःख से बचने का एक उपाय है, एक बच्चा ढूंढो ऐसा, जिसके मां–बाप की हत्या हो गई हो, उसकी परवरिश करो, सिर्फ ये ख्याल रहे कि वो मुसलमान हो और उसकी वैसी ही परवरिश हो! हत्या करने की भूख से लबालब आदमी की आंखें खुली की खुली रह जाती हैं...गाँधी बोलता है जाओ ईश्वर भला करे!
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस समाजवादी देश बनाना चाहते थे। हालाँकि, उनके समाजवाद की रुपरेखा स्पष्ट नहीं थी। नेताजी के राष्ट्र सम्बन्धी विचार जानने के लिए कृपया यहाँ क्लिक कीजिये, भगत सिंह के विचार जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये।
हिंदू राष्ट्र के बाधक
सबसे बड़ा रोड़ा भारत का संविधान है, संविधान में निहित पंथनिरपेक्षता का भाव। हिंदुस्तान में रहने वाली 25 फीसदी आबादी जो कि हिंदुत्व के सांचे में फिट नहीं बैठ रही है। वैज्ञानिक रुझान वाले लोग।
हिंदू पहचान को बनाए रखते हुए जाति का विनाश संभव नहीं है~ आंबेडकर, जाति का विनाश
मौजूदा संविधान को बनाने में डॉ.आंबेडकर की महती भूमिका थी। जन्म उनका हिंदू परिवार में हुआ था। पर हिंदू धर्म से परेशान हो कर बौद्ध धर्म को अपनाया। इसका एक कारण ये था कि महात्मा बुद्ध भी आंबेडकर की तरह हिंदू धर्म ग्रन्थों को खारिज कर रहे थे। अगर हिंदू राष्ट्र बनाना है तो आंबेडकर का क्या होगा? क्योंकि हिंदू राष्ट्र में शासन व्यवस्था तो संविधान से चलेगी!
पंथनिरपेक्षता क्यों ज़रूरी?
इतिहास की किताबों में मजहब के आधार पर हुए अत्याचारों, भेदभावों और बेदखली के कई उदाहरण मिलते हैं। इन्हीं किताबों में बदलते समय के साथ व्यक्ति के बढ़ते महत्त्व को रेखांकित किया गया है। व्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिकता के सिद्धांत ने प्रताड़नाओं के स्तर को धीमा किया है।
इसी क्रम में राज्य के स्तर पर धर्म को राज्य से अलग रखा। लेकिन, हिंदुस्तान में कई लोगों की ख्वाहिश कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाया जाए, अगर राज्य और धर्म एक हो गए तो?
1. पंथनिरपेक्षता हटते ही या यूं कहें हिंदू राष्ट्र बनते ही बहुसंख्यक की निरंकुशता स्थापित हो जाएगी। और इस शासन में लोकतंत्र नाममात्र का दिखावा भर रह जाएगा।
2. हरेक धर्म में कई तरह के पदानुक्रम बने रहते हैं, जब राज्य और धर्म अलग–अलग रहते हैं तब राज्य ऐसे पदानुक्रमों को खत्म करने की कोशिश करता है, जैसे छुआछूत और तीन तलाक पर लाए गए कानून। अगर, धर्म और राज्य एक हो गए तब ये ऊंच–नीच के ढर्रे शोषण को बढ़ावा देंगे।
3. धर्म और सत्ता के एक होने से धर्म के ठेकेदार ऐसे किसी विचार को स्वीकार नहीं करेंगे जो धर्म के खिलाफ जाता है। इसके कारण समाज में रूढ़ता आएगी, समाज की गति अवरुद्ध हो जाएगी।
4. धर्म के आधार पर भारत का गठन करने से भारत की सॉफ्ट डिप्लोमेसी पर असर पड़ेगा। पंथनिरपेक्षता को अपनाकर भारत ने तीसरी दुनिया के कई देशों के सामने एक लकीर खींची थी।
भारतीय संविधान और पंथनिरपेक्षता
कई लोग जाने-अनजाने ये तर्क देते हैं कि भारतीय संविधान के मूल रूप में पंथनिरपेक्षता का उल्लेख नहीं था, इसे 42 वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया है। ये असत्य नहीं अर्धसत्य है। 42 वें संविधान संशोधन के मार्फ़त केवल पंथनिरपेक्षता शब्द जोड़ा गया था। संविधान के मूल स्वरूप में पंथनिरपेक्षता का भाव शुरू से मौजूद था। जिसे आप संविधान के अनुच्छेद 14, 15,16 (समानता का अधिकार) 23, 24 ( शोषण के विरुद्ध अधिकार ) 25,26, 27, 28 (धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार ) 29, 30 ( सांस्कृतिक और शैक्षिक संबंधी अधिकार ) 44 (समान नागरिक संहिता) 51A (मौलिक कर्त्तव्य) और अनुच्छेद 325 सहित कई कानूनों में भी देख सकते हैं।
42 वां संशोधन भारतीय लोकतंत्र के सबसे बुरे काल में लाया गया था। सन् 1977 में जनता पार्टी की सरकार आती है। 42 वें संशोधन की समीक्षा कर नए संशोधन (43&44) करती है। पंथनिरपेक्षता शब्द (जो कि प्रस्तावना में जोड़ा गया था) यथावत रखती है।
भारत, हिंदू राष्ट्र कब बनेगा? आज भी बन सकता है, सिर्फ अध्यादेश लाना होगा। बहुमत और बहुसंख्यक की तानाशाही है इस देश में। लेकिन, हिंदू राष्ट्र भारत नहीं होगा। क्योंकि भारत का विचार जिन मूल्यों और सिद्धांतों पर आया था, हिंदू राष्ट्र की परिभाषा से मेल नहीं खाता है। मुझे एक नागरिक होने के नाते हिंदू राष्ट्र से दिक्कत होगी। वहीं एक धर्म के अनुयायी होने के नाते आसानी भी। पर इतना भी आसान नहीं है! मेरी जाति मेरे लिए संपदा का सृजन नहीं करती है।
ध्यान भटकाना भी एक तरकीब है। जिसे अंगरेजी में कहते हैं डायवर्सन ऑफ माइंड। देश में यही खेल चल रहा है। असल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा रहा है। रोजी–रोटी के मसले को ठेंगा दिखाकर कुछ लोग अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। भारतवासी अपने करीबी देश श्रीलंका के उदाहरण से सीख ले सकते हैं। अन्य देशों में भी इसी तरह का माहौल बन रहा है। सत्ता बनी रहे इसके लिए तरह–तरह के शगूफे छोड़े जा रहे हैं।
Write a comment ...