आज के नेता! नेताजी के बताए रास्ते पर कब चलेंगे?

बंगाल की जमीन ने आज़ादी के संघर्ष में ‘क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों’ को पाला–पोसा था। उन्हीं में से एक कलकत्ता के भूतपूर्व मेयर, अपने देश, अपनी मातृभूमि की आज़ादी के लिए 6 जुलाई 1944 को रंगून के रेडियो से, एक लंगोट धारी फकीर को राष्ट्रपिता की उपाधि देते हुए। ब्रितानी हुकूमत से युद्ध हेतु आशीर्वाद और शुभकामनाएं मांगता है।

यह क्रांतिकारी, गांधी, जवाहर,सुभाष और आज़ाद नाम की चार ब्रिगेडो से बनी आज़ाद हिन्द फौज का कमांडर इन चीफ ‘सुभाष चन्द्र बोस’ था।

बोस विदेश में, गांधी के असहयोग आंदोलन की खबर सुन कर 1921 में आईसीएस की नौकरी छोड़ कर भारत आते हैं। परंतु वो गांधी की रणनीति से संतुष्ट नहीं हो पाते हैं। यह रणनीतियों का द्वंद्व अंतिम समय तक चलता है। लेकिन इनके मतभेद कभी कटुता में नहीं बदलते हैं।

1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गांधी लंगोट में बैठे हैं, तो वहीं सुभाष सैनिक वर्दी में,क्योंकि जहां सुभाष के आदर्श नेपोलियन(फ्रांस के शासक) थे, तो गांधी के ऊपर टॉलस्टाय जैसे व्यक्तित्वों का प्रभाव था।

जहां एक ओर गांधी अंग्रजों से संघर्ष से पहले पूरी रणनीति बताते थे। तो वहीं सुभाष बाबू उसे रणनीतिक चूक।

उन दोनों भारत माता के महान सपूतों के साधन अलग–अलग थे(एक के लिए अहिंसा तो दूसरे के लिए हिंसा करने से कोई गुरेज नहीं) परंतु साध्य एक ही– भारत को ब्रितानी हुकूमत से आज़ाद करवाना।

सुभाष बाबू के लिए स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण थी, चाहे वह किसी भी माध्यम से प्राप्त की जाए। तो गांधी के लिए सत्य ज्यादा महत्त्वपूर्ण था।

स्वतंत्रता की बात पर कांग्रेस में बल देने के लिए उनके साथ, उनके परम् मित्र जवाहर लाल नेहरू थे। दोनों 1927 में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में महासचिव बनते हैं और पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखते हैं।

दोनों मित्र।

26 जनवरी 1930 तक वह दोनों उस लक्ष्य की प्राप्ति कर लेते हैं और उन से एक (जवाहर) कांग्रेस का अध्यक्ष बनता है, रावी नदी किनारे तिरंगा फहराकर गुलामी के खिलाफ पूरी बगावत फूंकता है। इसी दिन को सुभाष भी मानते हैं।

1937 में कांग्रेस के अध्यक्षीय कार्यकाल को पुनः नेहरू पूरा करते हैं। जिन्होंने कार्यसमिति में सुभाष को शामिल किया था। कार्यकाल के अंत में महात्मा गांधी अगले अध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू के नाम का प्रस्ताव रखते हैं। प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो जाता है।

1938 के हरिपुर अधिवेशन में गांधीजी, सुभाष बाबू और सरदार पटेल।

सुभाष बाबू समाजवादी रुझान के व्यक्ति थे, (जिसके कारण भी नेहरू से नजदीकी अधिक थी) तो इस कारण दक्षिणपंथी रुझान वाले साथियों से विवाद चलता रहता था, जिसे बापू मध्यस्थता कर हल करते थे।

1938 के कार्यकाल के बाद सुभाष बाबू अहिंसा के विचार से हटकर हिंसक माध्यम से आज़ादी प्राप्त करना चाहते थे।

1939 के चुनाव में दो विचार थे, एक का प्रतिनिधित्व सुभाष कर रहे थे तो दूसरे का सीतारमैया। सुभाष के जीतने पर गांधी ने अपनी हार कहा इसका मतलब था–अहिंसा के विचार की हार।

उनके पूरे जीवन में सुभाष बाबू ने सांप्रदायिकता के विरुद्ध हमेशा लड़ाई लड़ी थी। उनके 1938 के कार्यकाल में कांग्रेस के सदस्य बनने के लिए बनी शर्तों में एक शर्त यह रखी थी – कोई व्यक्ति जो हिंदु महासभा या मुस्लिम लीग का सदस्य है कांग्रेस का सदस्य नहीं बन सकता है।

उनकी सेना की सुभाष ब्रिगेड का कमांडर एक मुस्लिम था– शाहनवाज खान।

रंगून में दिए रेडियो भाषण के बाद आईएनए संघर्ष करती है। जंग तो हार जाती लेकिन हिंदुस्तानियों का दिल जीत जाती हैं। नेताजी की हवाई दुर्घटना में अकाल मृत्यु हो जाती है। परंतु गांधी आठ माह तक स्वीकार नहीं करते हैं।

उनकी फौज के सिपाहियों को पकड़कर बंदी बना लाल किले में रखा जाता हैं, जनता नारा लगती हैं–

“लाल किले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फौज छोड़ दो”

कांग्रेस केस लड़ने के लिए कमेटी गठित करती है, कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लो और कर्नल शहनवाज उस कमिटी को स्वीकार करते हैं। अन्य सांप्रदायिक दलों की समितियों को अस्वीकार करते हैं।

कांग्रेस की डिफेंस कमिटी।

वर्षों बाद बेरिस्टर नेहरू अपनी पुरानी ड्रेस में अपने साथी के फ़ौज की पैरवी करने जाते हैं।

देश की गंगा–जमुनी तहज़ीब से नारा आता है–

“हिंदुस्तानियों की एक ही आवाज़ सहगल, ढिल्लो, शहनवाज”

गांधी जी आईएनए के सिपाहियों से मिलने जाते हैं, शहनवाज वहां आईएनए के सिपाहियों को उनके चीफ कमांडर नेताजी का संदेश सुनाते हैं– आप आज़ादी के बाद अहिंसक रूप से गांधीजी के नेतृत्व में देश निर्माण को बढ़ावा देंगे।

गांधी आईएनए के सिपाहियों से मिलने जाते हैं। नेहरू सामने बैठे हैं। Pc–IE

नेताजी के लिए हिंसक रूप में सिर्फ आज़ादी को प्राप्त करना था, उसके बाद वो स्वयं बापू के पास जाकर उनके बताए रास्ते पर चलना चाहते थे।

बापू उनके कमांडर की पीठ थपथपाते हैं, कहते है वो एक सच्चा देश भक्त था।

इन क्रांतिकारियों के पास भारत को लेकर सपने थे। जिनमें सांप्रदायिकता के बीज कहीं नहीं थे, गरीब और अमीर के बीच खाई नहीं थी।

भारत की हुकूमतों ने केवल उनके स्टेच्यू लगवाए, सड़को के नाम रखे। परंतु उनके बताए रास्तों पर चलने का काम नहीं किया।

उनके विचारों पर चलना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। कृतज्ञता होगी।

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ashok

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गाँव का बाशिंदा, पेशे से पत्रकार, अथातो घुमक्कड़...