चिली में नया संविधान! अतीत से वर्तमान तक का सफरनामा।

हर ‘वर्तमान’ के साथ उसका ‘अतीत ’होता है. उस ‘अतीत’ को या यूं कहें इतिहास के बोझ को हर शख्स ढ़ोता है.

चिली. दक्षिण अमेरिका महाद्वीप में बसा एक देश. यहां नवा संविधान आया है. लेख में चिली के वर्तमान के पीछे छिपे अतीत (past) को देखने की कोशिश करते हैं.

15–16वी शताब्दी का समय है. यूरोपवासी (पश्चिमी यूरोप वाले) जहाज लेकर समुंद्र में नई दुनिया की खोज करने के लिए निकले हैं. स्पेन ने भी इसी धाती को निभाया. सन् 1600 के करीब प्रशांत सागर के तट से सटे चिली देश पर अपना झंडा गाड़ दिया. चिली के मूल निवासियों को समझ में आता तब तक गोरे लोग पूरे देश में फैल चुके थे. सन् 1810 के सितंबर महीने की 10 तारीख को एक मौका आया. चिली वासियों ने स्पेन का झंडा उखाड़ फेंका और आजादी की भीनी हवा में सांस ली. क्या वाकई आजादी थी? शायद मूल निवासियों के लिए तो नहीं!

अमेरिका के दक्षिणी हिस्से (लेटिन अमेरिका) के ऊपर उत्तरी अमेरिका भी है. इसमें है संयुक्त राज्य अमेरिका(USA). 1830 के दशक में यहां के राष्ट्रपति जेम्स मुनरो एकमत की घोषणा करते हैं– “मुनरो सिद्धांत”

सिद्धांत यूरोपीय देशों को कह रहा था कि आपका प्रवेश निषेध है. अभी यह इलाका हमारा है. संयुक्त राज्य अमेरिका ने हमेशा अपने हितों को तरजीह दी है. इसकी मार्फत चढ़ने वाली हर प्रकार की बलि को जायज ठहराया है. शीतयुद्ध के काल में अपने स्वार्थ को साधने के लिए ली जा रही बलि अपने शिखर पर थी.

बलि कि एक चिंगारी चिली पर भी आ गिरी. 1970 के दशक का समय था. चिली में सल्वाडोर अलेंदे की सरकार थी. सरकार का झुकाव समाजवाद की ओर था. जिसने ताजा-ताजा ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था.

तस्वीर में सल्वाडोर अलेंदे. सौजन्य बीबीसी।

1973 के सितंबर महीने की 11 तारीख थी. सल्वाडोर अलेंदे के सीने को बंदूक की गोलियों से भून दिया गया. संयुक्त राज्य अमेरिका की इसके संदर्भ में भूमिका आपने सुनी होगी.

लोकतंत्र के मनमोहक नारे देने वाला अमेरिका अपने हित साधने के लिए बड़े-बड़े तानाशाह को भी पालता रहा है. यह अमेरिका का दोहरा रूप है. इसकी गवाही देने वालों में से चिली भी एक है. अपने लिए एक तानाशाह को यहां बिठा दिया जाता है–ऑगस्टो पिनोचेट.

तानाशाह ऑगस्टो पिनोचेट.

यह अलोकतांत्रिक शासक उर्फ तानाशाह चिली के लिए नया संविधान लाते हैं(1980में). यहीं पर आज के नए संविधान की नींव पड़ चुकी थी. इस संविधान की प्रेरक शक्तियों में एक आर्थिक मॉडल भी था. जो उस समय नवजात था.

अर्थव्यवस्था में ‘राज्य’ की भूमिका को स्वीकार करने वाला “केंसियन मॉडल” असफल हो चुका था. (1973 के तेल संकट के बाद) फेड्रिक हाइक और मिल्टन फ्रीडमैन जैसे अर्थशास्त्रियों ने नव उदारवाद का मॉडल प्रस्तुत किया.(स्कूल ऑफ शिकागो) मॉडल का मोटा सार यह था कि बाजार खोल दो. बाजार को हस्तक्षेप मुक्त करो. राजकोषीय नीति की जगह मौद्रिक नीति को वरीयता दो. राज्य की भूमिका को सीमित कर दिया जाए (मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस). आत्मनिर्भर भारत इसी मॉडल पर है.

इस मॉडल की बदौलत देश में तेजी से आर्थिक वृद्धि (इकोनॉमिक ग्रोथ) हुई. चिली तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में सामने आया. इससे प्रेरित होकर अन्य तीसरे विश्व के देशों ने भी इस मॉडल को अपनाया.

लेकिन इन आर्थिक आंकड़ों के मायाजाल से इतर सच्चाई कुछ अलग थी. क्योंकि इस मॉडल ने राज्य की भूमिका (खर्च करने के मामले में) को सीमित कर दिया था. इस कारण गरीबों का सुरक्षा कवच ध्वस्त हो चुका था. अमीर और गरीब के बीच की खाई चौड़ी होती गई. हुकूमतों को कहा गया कि खर्च कीजिए. हुकूमतों के हाथ बंधे हुए थे. उस संविधान से जो दिन-ब-दिन निजीकरण को गले लगा रहा था.

प्रतिरोध के बोल आंदोलन के रूप में आने लगे. कई आंदोलन हुए. कई सरकारें भी बदली लेकिन सूरत नहीं बदल पाई. क्योंकि संविधान ने हाथ बांध रखे थे. वर्ष 2019 में हुए आंदोलन ने बदलाव का बीज बो दिया.

2019 में प्रदर्शन करते प्रदर्शनकारी। तस्वीर सौजन्य यूरो न्यूज।

अतीत में जब सोवियत रूस का किला ध्वस्त हुआ था यानी समाजवाद का अंत हुआ था तब इतिहासकार फ्रांसीसी फुकियामा ने कहा था– इतिहास का अंत हो गया. लगा कि अब कोई विरोधी बचा ही नहीं है पूंजीवादी मॉडल का. शायद असमानता रूपी राक्षस उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था. असमानता की हूक कचोटने लगती है. सरकार ने वर्ष 2019 में मेट्रो किराया बढ़ा दिया. असमानता और बेरोजगारी से त्रस्त युवा पीढ़ी में बसी ज्वाला इस छोटे–से मुद्दे को लेकर भभक उठी. आंदोलन शुरू हुआ मेट्रो का बहिष्कार किया गया. मांग उठी कि निजीकरण को रोका जाए. असमानता को काम किया जाए. जीवन जीने की लागत को कम किया जाए.

सरकार देश की इन मांगों को पूरी नहीं कर पाती है. दक्षिणधारा के राष्ट्रपति पेनेरा को इस्तीफा देना पड़ता है. अब तख्त पर स्वागत होता है पूर्व छात्र नेता और वाम धड़े से ताल्लुक रखने वाले 35 वर्षीय नौजवान गेब्रियल बोरिक का. चिली को नया राष्ट्रपति मिला है.

चिली के राष्ट्रपति गेब्रियल बोरिक। तस्वीर सौजन्य द टाइम।

अब उन मांगों को पूरा करने के लिए श्रीगणेश किया जाता है. आहुति दी जाती है 1980 के उस संविधान की. अक्टूबर 2020 में 80% देशवासी नए संविधान के पक्ष में मतदान करते हैं.

2021 में नए सदस्यों का चुनाव होता है जुलाई 2021 में पहली बैठक होती है. बैठक का नजारा अलग था. रंगीला था. पंचायत की 51% सदस्य महिलाएं थी. 17% मूल निवासी थे. वहीं वाम धड़े ने भी अलग-अलग तबकों को समाहित किया हुआ था.

चुनौती को स्वीकार किया जाता है. संविधान बनकर तैयार हुआ. 4 जुलाई 2022 को संविधान का प्रारूप जनता के बीच में रखा जाता है. अब 4 सितंबर को जनता इस पर फैसला करेगी कि लागू किया जाए या नहीं.

चिली के नए संविधान के भविष्य के बारे में पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय मामलों की विशेषज्ञ प्रो. आनंद प्रधान का कहना है– संविधान को बनाने की प्रक्रिया को देखिए, दुनिया का पहला संविधान है जिसने समाज के नए तबकों को शामिल किया है, जैसे–एलजीबीटीक्यू, पर्यावरण कार्यकर्ता. पहला संविधान होगा जो जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को संबोधित करेगा. एक नए तरह का प्रयोग है. अब इसका प्रभाव विश्व के अन्य विकासशील देशों में भी देखा जा सकता है. संविधान प्रारूप को जनता स्वीकार करेगी या नहीं? तो देखिए चिली का हर तबका अपने स्टेटस को बनाए रखना चाहता है. हालांकि, प्रारूप स्वीकार कर दिया जाएगा भले ही बड़े मार्जिन से ना हो पाए. रही बात इसके भविष्य की तो यह संविधान विजनरी है. दूरदृष्टि रखता है. एक नई दिशा दिखाता है. बाकी तो लागू करने वालों पर निर्भर करेगा कि वह लागू कर पाते हैं या नहीं.

आंदोलन के दौरान गेब्रियल बोरिक। तस्वीर सौजन्य–अल जजीरा।

समकालीन मुद्दों को संबोधित करते हुए इस संविधान ने 12% मूल निवासियों को भूमि का अधिकार, सामाजिक–आर्थिक अधिकार. स्वास्थ्य का अधिकार. आवास का अधिकार. शिक्षा का अधिकार. प्रकृति का अधिकार सहित लैंगिक अधिकार को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राज्य को दी गई है.

राज्य को जैव विविधता के संरक्षण के लिए काम करना होगा.

स्वायत्त संस्थानों का गठन किया जाएगा. नागरिकों को सरकार वापस बुलाने जैसी पहल करने का भी अधिकार दिया जाएगा.

संविधान का प्रारूप जनमत संग्रह में अस्वीकार हो जाता है तो 1980 में बना संविधान यथारूप रहेगा. अब जज चिली की जनता है. फैसला उन्हें करना है.


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