अदने आदमी की जीवन यात्रा के 25 वर्ष

लोग सफ़ल किरदारों की कहानी सुनना पसंद करते हैं। मैं न तो कहानी सुना रहा हूँ और ना ही खुद को सफ़ल या असफ़ल घोषित कर रहा हूँ। केवल अपने अंदर की बेकली को बाहर निकालने की कोशिश कर रहा हूँ...!

एक बार मैं अपने गाँव में ताऊजी के साथ बैठा था। उनकी आँखों का रंग सफ़ेद हो रहा था; आँखें लगातार अंदर धंस रही थीं। बिलकुल वैसे ही जैसे मेरे अपने मा–पिता की धंस रही हैं। मैंने पूछा आपको ऐसा महसूस नहीं होता कि आप बूढ़े हो रहे हो ? क्या आपको मौत से डर नहीं लगता ?

उन्होंने पलट के सिर्फ इतना कहा कि आदमी अचानक बूढ़ा थोड़े ही होता है...धीरे–धीरे होता है।

मैंने भी अपने जीवन के 25 वर्ष जी लिए। कुछ पता ही नहीं चला। हम सब धीरे–धीरे मौत के करीब जा रहे होते हैं।

शायर साहिर लुधियानवी का एक शेर है कि “ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम ” लेकिन मैं कई बार सोचता हूँ कि क्या यह नज़र हमारी है ? या हमें दी जाती है ? जिंदगी और इसे देखने की नज़र इंसान के पैदा होने से पहले ही तय कर दी जाती है। इतिहास का बोझ ही इंसान के जीवन को आखरी साँस तक चलाता है। समाज की बनावट ही इंसान के जीवन की दशा और दिशा तय करता है। समाज में पुत्र का महत्त्व अधिक था इसलिए मेरी मा को मेरे जन्म से पहले चार बहनों का देना पड़ा। सोचता हूँ कि उस दिन मा बाप को कितनी खुशी हुई होगी जिस दिन मेरा जन्म हुआ था? कब खुश होना है यह भी इंसान तय नहीं कर पाता है ?

अतिवाद ना हो तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि सपने भी हम तय नहीं कर पाते हैं। मेरी बहनों का जीवन पहले से तय था; जैसे सभी लड़कियों का होता है। उनके सपने भी पहले से तय थे। उनके सपनों में क्या था ? एक ठीक–ठाक घर और लड़का मिल जाए। मिलता है? मैंने अपनी बहन से एक दिन पूछा कि तुम्हारा घर कौनसा है ? तो वो निरुत्तर थीं। जैसा कि कवि श्रीकांत वर्मा लिखते हैं कि 'मैं अब घर जाना चाहता हूँ', लेकिन घर लौटना नामुकिन है; क्योंकि घर कहीं नहीं है। वाकई घर कहीं नहीं है।

बहरहाल गांव में मेरी पीढ़ी, पहली पीढ़ी थी, जो पढ़ने के लिए बाहर गई। यहां आ कर लगता है मेरे पिता ने मेरी जिंदगी को मुझे अपनी नज़र से देखने का मौका दिया। लेकिन, इस दरमियान वो अपनी जिंदगी को जीना भूल गए। मेरी जिंदगी ही उन सबकी जिंदगी बन गई। मेरे सपने उनके सपने बन गए। मेरा हंसना... मेरा रोना...

लेकिन क्या समाज ने पीछा छोड़ा ? देहाती आदमी का ‘मार्गदर्शन’ करने वाला कौन था ? यह पूरी पीढ़ी धक्के खा रही थी / है? बालपने में ही घर से बाहर। अंधेरे में तीर मारने की कोशिश कर रहे थे/हैं। लेकिन मेरा अंधेरा इतना गहरा नहीं था जितना की मेरी बहनों की जिंदगी का। मेरा परदेस, बहनों के परदेस से अच्छा था।

शोषक–शोषित की पहेली

मैं कई बार कहता हूं कि हम एक ही समय शोषक और शोषित दोनों होते हैं। जब मैं घर से बाहर पढ़ने गया तब में शोषक था और मेरी बहनें शोषित। जब मैं शहर के स्कूलों में पढ़ रहा था तब मैं शोषित था!

समाज ने मेरा ध्यान भटका कर रखा। (मेरे इलाके में समाज को एक जाति विशेष से जोड़ देते हैं। यहां समाज से तात्पर्य मानव समाज से है, जिसमें हम जीवन जीते हैं।) मेरे सपने हमेशा ही समाज ने तय किए। कभी डॉक्टर बनने को कहा। कभी पटवारी। कभी तहसीलदार। कभी कुछ और। लेकिन, शोषक–शोषण की गूँथी हुई पहेली पर ध्यान नहीं जाने दिया। अगर हम किसी का शोषण कर खुश हैं, तो कल को हमारा भी कोई शोषण करेगा। जब मैं गांव से बाहर आया तब कई जातियों के बच्चे बाहर नहीं आ पाए। क्योंकि मेरी तथाकथित जाति ऊँची थी। आम भाषा में कहें तो मैं शोषक था। इसी बात का सामना मुझे दिल्ली में करना पड़ा, जब मुझे तथाकथित उच्च (शोषक) जाति के लोग मिले। जैसे में एक खास घर, खास जाति में पैदा हुआ। वैसे ही इनका भी जन्म खास जाति में हुआ। मैं किसी को दोषी नहीं ठहरा रहा हूं। बस इस पहेली को बताना चाह रहा हूं कि शोषक और शोषित दोनों आपस में जुड़ी हुई धारणाएं हैं। एक से लगाव और दूसरे से विलगाव संभव नहीं है।

समाज की इस बसावट से उपजी ऊँच–नीच भरी सरंचना को तोड़ना ही सबसे बड़ी लड़ाई है। क्योंकि इस ऊँच–नीच के कारण कितने ही नौजवान आज असफल घोषित कर दिए गए हैं। और वो किसी को बता भी नहीं पाते। गांव छोड़कर शहर में ही कहीं खोते चले जा रहे हैं। जैसे होश ही नहीं रहा। कवि कुंवर नारायण लिखते हैं कि “मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को

दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में

अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।

शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं

कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,

लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते...

विकल्पहीन नहीं है जीवन

खोने को कुछ नहीं है। इसलिए हार नहीं मानेंगे। बचैनी के चरम स्तर पर भी सहज बनकर राह तलाशते हैं। किसी को कुछ कहे बिना संघर्ष के पथ पर डटे हुए हैं। क्योंकि मेरी हमउम्र पीढ़ी को तालीम हासिल करने का मौका मिला है। इस मौके को जाया होने नहीं देंगे। जिंदगी को जितना हो सकेगा, अपनी नज़र से देखने की कोशिश करेंगे। शोषक–शोषित के जाल को तोड़ने की कामयाब कोशिश की जाएगी।

यह बात सही है कि उम्र के इस पड़ाव में कुछ भी नहीं कर पाया हूं। लेकिन, नाउम्मीद नहीं हूं। ना ही हार मानी है। क्योंकि जब भी पीछे मुड़कर देखता हूं तब उन लोगों की तसवीर दिखती है जिनके संघर्ष, दुख–दर्द के सामने मेरी पीड़ा तुच्छ है।

इस समय मेरे बूढ़ा बूढ़ी मौत के तरफ़ ढल रहे हैं। और मा बाप बुढ़ापे की तरफ़। जी चाहता है उनके पास जाऊं। लेकिन, जा नहीं पाता हूं। कौन जिम्मेदार है ? समाज कहेंगा तुम। और मैं चुप रहूंगा। मौन ही अभिव्यंजना है।

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ashok

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गाँव का बाशिंदा, पेशे से पत्रकार, अथातो घुमक्कड़...