पुस्तक समीक्षा। वे सोलह दिन।

15 अगस्त की मध्य रात्रि को जब संपूर्ण विश्व सो रहा था तब दुनिया की सबसे प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक ‘हिंदुस्तान’ की सबसे बड़ी पंचायत की बैठक हो रही थी.

अभी–अभी बने नए राष्ट्र के प्रथम सेवक <जवाहरलाल नेहरू> का भाषण पंचायत में गूंज रहा था. भाषण का विषय था “भाग्य के साथ साक्षात”.(tryst with destiny)

उस भाग्य नामी ताले के लिए उसी पंचायत में बैठकर, चाबी रूपी संविधान अगले 3 वर्षों में बना दिया गया.

लेकिन प्रथम सेवक उस चाबी (संविधान) के बनने के 1 वर्ष बाद ही कमियां गिनाने लगे. कमियों को दूर करने के लिए चाबी में बदलाव शुरू हुआ.

बदलाव की इस प्रक्रिया को ‘संविधान का प्रथम संशोधन’ कहते हैं. इसी पहले संशोधन की कहानी को त्रिपुरदमन सिंह ने अपनी पुस्तकवे सोलह दिन में बयां किया है.

क्या है इस पुस्तक में?

[पुस्तक पेंगुइन पब्लिकेशन से प्रकाशित है. जो कुल सात भागों में विभाजित है और 256 पेज है.]

संविधान बनाने वालों ने मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व, दोनों को ‘राज्य का लक्ष्य’ घोषित किया. लेकिन जब सरकार ने काम करना शुरू किया तब नीति निदेशक तत्व को लागू करने पर मौलिक अधिकारों से टकराव होने लगता है.

इसी टकराव की सुनवाई करने आता है ‘न्यायालय’.

फिर, सुनवाई करने आए न्यायालय एक नई टकराहट को जन्म देते है–कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच. (जो केशवानंद भारती मामले तक चलती रहती है)

इन टकराहटो पर न्यायलय अपने फैसले सुनात है. इन फैसलों के कारण राज्यों की सरकारें परेशान होने लगती हैं. फिर इन सरकारों के लिए अंतिम आसरा बनते हैं जवाहर लाल नेहरू.

परेशान होने वाले राज्य सरकारों की सूची में मद्रास राज्य भी शामिल था. मद्रास के मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्री औपनिवेशिक काल में बने कानून (कम्युनल ऑर्डर) को बचाना चाहते थे! और इस बचाव की ढाल खोजने के लिए आते है ‘दिल्ली के दरबार’ में यानी नेहरूजी के पास.

नेहरूजी के सामने एक खतरा और था. वो था देश के पहले राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच टकराव. जो हुआ नहीं होते–होते बच गया.

पुस्तक दर्शाती है कि कैसे कांग्रेस ने अपने सामाजिक एजेंडे के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बजाय समाज या राज्य को वरीयता दी.

साथ ही आजादी के शुरुआती दिनों में राजनीति के गलियारों में चर्चाएं पक्ष और विपक्ष के नेताओं के भाषण की विषयवस्तु पर उचित प्रकाश डालती हैं.

क्यों पढ़े इस पुस्तक को?

इतिहास आपका पीछा नहीं छोड़ता है. इतिहास हमेशा वर्तमान को प्रभावित करता है. आज की सरकार पर लगे कई आरोपों की जड़े नेहरू जी के पास जाती है. इसलिए अतीत की पूरी समझ के बिना वर्तमान को नहीं समझ सकते हैं.

अतीत में कैसे सरकार खुद को राष्ट्र मानने लगती हैं और सरकार की आलोचना को राष्ट्र की आलोचना करार देती है?

राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद अपने एजेंडे को लागू कराने के लिए कैसे संविधान में संशोधन करने लगते है. उसे जनता के लिए आवश्यक बताते हैं.?

आरक्षण का डिबेट कैसे शुरू हुआ था?

भूमि सुधार के क्रम में क्या–क्या बाधाए आयी थी?

संविधान में 9th अनुसूची का प्रवेश कैसे हुआ?

ऐसे कई मुद्दों को समझने के लिए आप इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं.



Write a comment ...

ashok

Show your support

पैसे दोगे तो किताबें खरीदूंगा।

Recent Supporters

Write a comment ...

ashok

गाँव का बाशिंदा, पेशे से पत्रकार, अथातो घुमक्कड़...