लाल कोट- लाल किला /महरौली

ऐसा क्यों होता है कि एक राजधानी, शहर नहीं बन पाता और वह उजड़ जाता है। शहर के बनने का सफर बहुत लंबा होता है। ‘शहर’ को शहर के लोगों द्वारा बनाया जाता है यह लोग बाहर से आकर शहर में बसते हैं और नई संस्कृति का निर्माण करते हैं जिसे हम 'शहरी संस्कृति' कहते है।

राजधानी को शहर में बदलने में सैकड़ों वर्षो का समय लगता है। तब तक इस शहर को राजा के साथ-साथ शहर के निवासियों द्वारा पाला पोसा जाता है।

दिल्ली की भौगोलिक स्थिति इसे एक राजधानी के रूप में बढ़ने का अवसर देती है।

ऐसा माना जाता है कि पाल वंश की राजधानी भी आधुनिक महरौली क्षेत्र में रही थी। चंद्रगुप्त के समय निर्मित लौह स्तंभ को पाल शासक अनंगपाल ने यहां स्थापित करवाया था।

अजमेर के चौहान वंशीय शासक पृथ्वीराज ने तराइन के पहले युद्ध को जीतने के बाद दिल्ली में 'राय पिथौरा' की स्थापना की। यह दिल्ली के पहले शहर के बसने की नीव थी।

तराइन के दूसरे युद्ध में मोहम्मद गोरी विजेता होता है। गोरी अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को इस क्षेत्र का गवर्नर नियुक्त करता है।

प्रारंभिक मुस्लिम शासकों के पास कारीगरों की और समय की कमी थी। इसलिए हिंदुस्तान में विद्यमान इमारतों पर हिंदुस्तानी कारीगरों के माध्यम से नई इमारतों का निर्माण कर जनता से अपनी वैधता प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।

इसीलिए मध्य काल के प्रारंभ में निर्मित अधिकांश इस्लामिक इमारतें हिंदू और जैन मंदिरों पर निर्मित है।

लेकिन यह गंगा यमुना तहजीब के प्रारंभ होने की शुरुआत है।

" देखो निगाहें नाज से दिल्ली के नजारे तहजीब की जन्नत बसी है यमुना के किनारे"

महरौली के क्षेत्र को निर्मित करने में सल्तनत शासकों, मुगल शासकों और अंग्रेजों का प्रमुख योगदान है। इस क्षेत्र में आने वाली कई इमारतें इतिहास के चिराग को जिंदा रखें हुई है।

क़ुतुब मीनार,

अलाई मीनार,

इल्तुतमिश का मकबरा,

गंधक की बावड़ी,

हौज ई शमसी,

जोगमाया का मंदिर,

सूफी संत बख्तियार काकी की दरगाह और कई इमारतें जो हमको कहानियां सुनाती है।

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